अर्धन्यायिक कार्यवाही (Quasi-Judicial Proceeding) एक विस्तृत अध्ययन
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भारतीय विधिक व्यवस्था में निर्णय लेने की
शक्ति केवल न्यायालयों (Courts) तक सीमित नहीं है। अनेक
वैधानिक निकाय, अधिकरण (Tribunals), विभागीय
प्राधिकरण और कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी ऐसे निर्णय लेते हैं जो किसी व्यक्ति के
अधिकार, दायित्व या हितों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते
हैं। जब किसी प्रशासनिक अथवा वैधानिक प्राधिकारी को ऐसा निर्णय लेने का अधिकार
प्राप्त होता है, और वह निर्णय न्यायिक सिद्धांतों एवं
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए लिया जाता है, तो इसे अर्धन्यायिक कार्यवाही (Quasi-Judicial Proceeding) कहा जाता है। श्रम कानूनों के प्रवर्तन के क्रम में न्यूनतम मजदूरी
अधिनियम, 1948
(धारा 20), उपदान भुगतान अधिनियम, 1972 (धारा 7), कर्मचारी
क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 (धारा
19) आदि में भी श्रम पदाधिकारियों को अर्धन्यायिक कार्यवाही के माध्यम से निर्णय
लेना होता है।
परिभाषा-
Quasi-Judicial Proceeding वह
प्रक्रिया है जिसमें कोई प्राधिकारी, जो पूर्ण रूप से
न्यायालय नहीं है, परंतु विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार के
अंतर्गत कार्य करते हुए, किसी विवाद या अधिकार-कर्तव्य
संबंधी मामले पर निर्णय करता है। सुप्रीम कोर्ट ने Indian National
Congress (I) v. Institute of Social Welfare (2002) 5 SCC 685 में कहा था: “किसी प्राधिकारी को अर्धन्यायिक तब कहा जाता है जब उसे
कानून के अनुसार, विवादित तथ्यों का निर्धारण कर, न्यायिक सिद्धांतों का पालन करते हुए निर्णय लेना हो।”
अर्धन्यायिक और प्रशासनिक कार्यवाही में अंतर-
अर्धन्यायिक (Quasi-Judicial)
और प्रशासनिक (Administrative) कार्यवाही में
मूल अंतर उनके उद्देश्य, प्रक्रिया और निर्णय लेने के तरीके
में होता है। प्रशासनिक कार्यवाही मुख्यतः नीतियों को लागू करने, प्रबंधन, और सरकारी कार्यों के संचालन से जुड़ी होती
है, जिसमें किसी विशेष विवाद का निपटारा आवश्यक नहीं होता।
यह प्राधिकारी के विवेक और नीतिगत प्राथमिकताओं पर आधारित होती है, और इसमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (जैसे सुनवाई का अधिकार, निष्पक्षता) का पालन करना अनिवार्य नहीं होता। उदाहरण के लिए—परमिट या
लाइसेंस जारी करना, अनुदान स्वीकृत करना, या कर्मचारियों का स्थानांतरण करना प्रशासनिक कार्य हैं। दूसरी ओर,
अर्धन्यायिक कार्यवाही तब होती है जब किसी प्राधिकारी को कानून
द्वारा यह शक्ति दी गई हो कि वह किसी विवाद या मामले में, जिसमें
व्यक्तियों के अधिकार या कर्तव्य प्रभावित हो रहे हों, निर्णय
करे। इसमें न्यायिक प्रक्रिया की तरह सुनवाई का अवसर देना, साक्ष्यों
पर विचार करना और सकारण (speaking) आदेश पारित करना अनिवार्य
होता है।
अर्धन्यायिक प्राधिकारी, भले ही पूर्ण न्यायालय न हों, परंतु उन्हें न्यायालय
जैसी निष्पक्षता और पारदर्शिता से काम करना पड़ता है। उदाहरण के लिए—श्रमिक एवं
नियोजक को सुनकर न्यूनतम मजदूरी के विवाद का निपटारा करना अर्धन्यायिक कार्यवाही
मानी जाएगी। इस प्रकार, प्रशासनिक कार्यवाही नीति-निष्पादन
और प्रबंधन पर केंद्रित होती है, जबकि अर्धन्यायिक कार्यवाही
अधिकारों और दायित्वों के विवादों के निष्पक्ष निपटारे पर केंद्रित होती है।
मुख्य विशेषताएँ-
1) विधिक अधिकार- अर्धन्यायिक
कार्यवाही तभी वैध मानी जाती है जब उसका स्रोत किसी स्पष्ट वैधानिक प्रावधान, नियम या नियमानुसार जारी शक्ति में हो। यानी प्राधिकारी के पास जो अधिकार
है वह मनमाना नहीं, बल्कि संसद/विधायिका या संबंधित अधिनियम
द्वारा प्रदत्त होना चाहिए। यह दो काम करता है — (क) सीमाएँ तय करता है:
प्राधिकारी क्या कर सकता है और क्या नहीं; (ख) जवाबदेही तय
करता है: यदि प्राधिकारी अपनी सीमा से बाहर गया तो उसका निर्णय रद्द हो सकता है।
उदाहरण के तौर पर यदि किसी नियम में लाइसेंस रद्द करने की सशर्त प्रक्रिया बताई गई
है तो उस प्रक्रिया का पालन किए बिना रद्द करना अवैध होगा। इसलिए नोटिस, सुनवाई का स्वरूप, निर्णय देने का तरीका—इन सबका
वैधानिक आधार होना आवश्यक है।
2) विवाद का समाधान -अर्धन्यायिक
कार्यवाही का मूल उद्देश्य पक्षों के बीच वैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों पर उत्पन्न
विवाद का निष्पक्ष निपटारा है। यह नीति-निर्धारण या प्रशासनिक विकल्प से अलग है —
यहाँ केंद्र इस बात पर होता है कि किस पक्ष का दायित्व/हक क्या है। इसलिए
प्राधिकारी को मामले के तथ्य स्पष्ट करना, साक्ष्य आकलित
करना और दोनों पक्षों की दलीलों का तुलनात्मक मूल्यांकन कर, कानून
के अनुरूप परिणाम देना होता है। परिणाम स्वरूप वह आदेश जारी होता है जो दोनों
पक्षों के वैधानिक हितों को ध्यान में रखते हुए विवाद को समाप्त करे या अनुपालन
हेतु निर्देश दे।
3) प्राकृतिक न्याय का पालन- प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांत अर्धन्यायिक कार्यवाही का आधार हैं। इन सिद्धांतों का अभिप्राय
है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया निष्पक्ष, पारदर्शी और
तर्कसम्पन्न हो। यदि कोई आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन कर बनाया
गया तो उसे न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है। नीचे इसके प्रमुख अंगों का विवरण
है।
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Audi alteram partem — सुनवाई का अधिकार (“दूसरी तरफ को भी सुना जाए”) इस
सिद्धांत का तात्पर्य है कि किसी के विरुद्ध प्रतिकूल निर्णय मात्र फैसले की
एकतरफा सूचना देकर नहीं लिया जा सकता। पक्षकार को पर्याप्त नोटिस देना, आरोप/आधार की प्रतियाँ उपलब्ध कराना, और लिखित या
मौखिक रूप से अपना बचाव रखने का वास्तविक अवसर देना अनिवार्य है। सुनवाई साधारणतः
ऐसी होनी चाहिए कि पक्ष अपने साक्ष्य और गवाह पेश कर सके, विरोधी
साक्ष्यों पर प्रश्न कर सके, और कानूनी तर्क प्रस्तुत कर
सके। कुछ सीमित परिस्थितियों में—जैसे तात्कालिक सुरक्षा खतरा—एकतरफा अंश (ex-parte)
कार्रवाई संभव हो सकती है, पर बाद में नियमित
सुनवाई का प्रावधान होना चाहिए; अन्यथा आदेश असंवैधानिक ठहर
सकता है।
-
Nemo judex in causa sua —
निर्णयकर्ता का निष्पक्ष होना अनिवार्य- यह
सिद्धांत कहता है कि जो व्यक्ति निर्णय दे रहा है, वह न तो
किसी पक्ष का हितधारी हो, न ही उसके साथ ऐसा संबंध हो कि
निष्पक्षता पर प्रश्न उठे। वित्तीय लाभ के मामले (financial interest), व्यक्तिगत मैत्री/शत्रुता, पूर्व निर्णय/राय जिसमें
निर्णयकर्ता ने पहले ही पक्षपात दिखाया हो, आदि परिस्थिति निर्णय की निष्पक्षता को
संदिग्ध बनाती हैं। व्यवहार में, यदि निर्णयकर्ता में ऐसी
किसी चीज की उपस्थिति है तो उसे स्वयं हट जाना चाहिए या पक्ष को स्वतः यह जानकारी
देनी चाहिए ताकि पक्ष आपत्ति कर सके। न्यायालय यह देखता है कि “सामान्य व्यक्ति”
के नजरिये से क्या निष्पक्षता पर समुचित संदेह होगा — यदि हाँ तो निर्णय रद्द हो
सकता है।
4) सकारण आदेश (Reasoned Order)-
एक अर्धन्यायिक आदेश सिर्फ यह बताना नहीं चाहिए कि “ दस गुणा मुआवजा के साथ
न्यूनतम का भुगतान किया जाए”, बल्कि उसमें यह स्पष्ट
होना चाहिए कि कौन-से तथ्य स्वीकार किए गए, किन साक्ष्यों को
महत्व दिया गया, किनका खंडन किया गया, और
किस कानून/नियम के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला गया। सकारण आदेश का दो तरह का महत्व
है: (क) यह पक्षों को समझ देता है कि निर्णय कैसे और क्यों लिया गया; (ख) यह उच्चतर अपीलीय निकाय या न्यायालय को समीक्षा के लिए आवश्यक सामग्री
देता है। आदेश में तारीख, प्रभावी प्रावधानों का उल्लेख,
तर्क और अंतिम निर्देश स्पष्ट होने चाहिए — तभी वह “speaking
order” कहलाता है।
5)
निष्पक्षता और पारदर्शिता- निष्पक्षता का तात्पर्य केवल
निर्णयकर्ता की बेदाग होने से ही नहीं है, बल्कि
प्रक्रिया के हर चरण में पक्षों को बराबर का अवसर और समान व्यवहार से भी है।
पारदर्शिता का अर्थ है—नियमों का स्पष्ट होना, नोटिस व
साक्ष्य का उपलब्ध कराना, आदेशों का लिखित रूप में देना और
जहाँ संभव हो, सार्वजनिक अभिलेख में रख देना। यह भरोसा बनाता
है कि निर्णय केवल तथ्यों और कानून पर आधारित है, न कि गुप्त
जानकारी, निजी इच्छाओं या बाहरी दबाव पर। पारदर्शिता से
प्रशासनिक जवाबदेही भी सुनिश्चित होती है और संभवतः अपीलों की संख्या घटती है
क्योंकि विवाद के पक्षकार कारणों को समझ पाते हैं। State of U.P. v.
Mohd. Nooh (1958) के मामले में माननीय
सर्वोच्च न्यायालय ने पक्षपात के आधार पर लिए गए निर्णय को रद्द कर दिया।
अर्धन्यायिक कार्यवाही की प्रक्रिया —
(1) नोटिस जारी करना — अर्धन्यायिक
कार्यवाही की शुरुआत प्रायः नोटिस से होती है। नोटिस का उद्देश्य पक्षकार को विवाद, आरोप या प्रस्तावित कार्रवाई के बारे में स्पष्ट तथा पर्याप्त जानकारी
देना है ताकि वह न्यायोचित तरीके से अपनी तैयारी कर सके। एक समुचित नोटिस में आम
तौर पर आरोपों का संक्षिप्त विवरण, प्रभावी कानूनी
प्रावधानों का उल्लेख, साक्ष्य जो विचार के लिए रखे जाने हैं
(या जिन पर निर्णय निर्भर करेगा), सुनवाई की तिथि, समय और स्थान, तथा यदि लागू हो तो अनुत्तरित रहने पर
होने वाले परिणाम स्पष्ट रूप से लिखे होते हैं। नोटिस को वैधानिक या नियमानुसार
सही तरीके से भेजा जाना (व्यक्तिगत रूप से, रजिस्टर्ड पोस्ट,
या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम यदि विधि अनुदेश देती है) भी आवश्यक है;
यदि नोटिस अपर्याप्त या दोषपूर्ण हुआ तो बाद में जारी आदेश को रद्द
किया जा सकता है। नोटिस के साथ वह सामग्री भी अनुलग्नक के रूप में प्रदान की जानी
चाहिए जिस पर प्राधिकारी विचार करेगा — जैसे जाँच प्रतिवेदन, वादी से जुड़े तथ्य, इत्यादि
— ताकि पक्ष को प्रश्नों के प्रत्युत्तर व दलीलें तैयार करने का उचित अवसर मिल
सके।
(2) सुनवाई
का अवसर — “Audi alteram partem” के सिद्धांत के तहत सुनवाई का वास्तविक और पर्याप्त अवसर देना अनिवार्य
है। यह केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि पक्षों को मौखिक या लिखित
रूप से अपने तर्क, साक्ष्य और प्रतिवाद रखने का सार्थक अवसर
होता है। सुनवाई में पक्ष अपने वकील का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, प्रमाण पेश कर सकते हैं और प्रतिवादी के प्रस्तुत प्रमाणों का प्रत्युत्तर
दे सकते हैं। न्यायालय/प्राधिकरण आवश्यकतानुसार अग्रिम तिथि बदलने या अतिरिक्त समय
देने का विवेक रख सकता है पर यह “अनुचित विलंब” में बदलना नहीं चाहिए। किसी कारणवश
पक्ष अनुपस्थित रहे तो प्राधिकारी आमतौर पर एक बार और सुनवाई का मौका दे सकता है;
केवल गंभीर कारणों के अभाव में एकतरफा (ex-parte) निर्णय संभव है, पर ऐसे निर्णय भी बाद में ख़ारिज (set
aside) होने का कारण बन सकते हैं यदि अनुपस्थिति के कारणों का
निवारण अपीलीय प्राधिकार के समक्ष कर दिया जाए। इसलिये बेहतर होगा कि प्रतिवादी को
समुचित अवसर दिया जाए और अनुपस्थिति के मामलों में कम-से-कम तीन नोटिस देने के बाद
ही निर्णय लिया जाए। A.K. Kraipak v. Union of India (1969) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बिना सुनवाई के लिए गए निर्णय
को अवैध घोषित किया गया।
(3) साक्ष्य
संकलन — अर्धन्यायिक संस्थाएँ पारंपरिक रूप से सख्त
साक्ष्य-विधान (Evidence Act) के बंधन में नहीं
होतीं, परन्तु न्यायशीलता और विश्वसनीयता के लिए साक्ष्यों
के स्वाभाविक सिद्धांत लागू होते हैं। साक्ष्य में लिखित दस्तावेज, गवाहों के बयान, विशेषज्ञ के रिपोर्ट, ऑडिट रिपोर्ट,
निरीक्षण रिपोर्ट, इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख, आदि आते हैं। प्राधिकारी का
दायित्व होता है कि वह आरोपों के पक्ष और विपक्ष के साक्ष्यों को यथार्थ रूप में
संकलित करे और उन पर विचार करे। यदि किसी गवाह के बयान पर निर्णय अधारित किया जा
रहा हो तो दूसरे पक्ष को उस गवाह को Cross-Examination
(प्रश्नोत्तर) का मौका देना वैधानिक रूप से उचित माना जाएगा। विशेषज्ञ रिपोर्टों
के मामले में रिपोर्ट तैयार करने वाले स्रोत का संपूर्ण विवरण तथा रिपोर्ट पर
आपत्ति करने का अवसर देना चाहिए। अप्रस्तुत या गुप्त साक्ष्य को स्वीकार करने पर
इससे पारदर्शिता भंग होती है और आदेश कमजोर हो सकता है। Union of India
v. H.C. Goel (1964) के मामले में माननीय
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिना ठोस साक्ष्य के लिए गए आदेश को रद्द किया गया।
(4) तर्क-वितर्क — सुनवाई
के दौरान दोनों पक्षों को अपने वैधानिक एवं तर्कसंगत बिंदु प्रस्तुत करने का अवसर
मिलता है। यह हिस्सा केवल तथ्यों के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं रहती; इसमें क़ानूनी औचित्य (justification), पूर्वनिर्णयों (precedents) का उल्लेख, साक्ष्यों पर तर्क और प्रतिपक्षी दावों का खंडन शामिल होता है। लिखित
दलीलें (written submissions) और मौखिक तर्क दोनों
महत्त्वपूर्ण होते हैं—लिखित दलीलें प्राधिकारी के अभिलेख (Record) के लिए उपयोगी होती हैं जबकि
मौखिक बहस तत्काल शंकाओं का निर्वचन करती है। तर्क-वितर्क का क्रम संगठित होना
चाहिए: मुख्य मुद्दे, सबूतों का मूल्यांकन, परिणाम-स्वरूप माँगी गयी राहत, आदि। वादी/प्रतिवादी
की अनुचित व्याकुलता, अनावश्यक विलंब या गैर-प्रासंगिक
दलीलों को सीमित करने का अधिकार प्राधिकारी के पास रहता है।
(5) विचार और निर्णय — सुनवाई
पूर्ण होने के बाद प्राधिकारी तथ्यों, साक्ष्यों और
संबंधित कानून पर विचार करता है। यह विचार-प्रक्रिया निष्पक्ष और तर्कसंगत होनी
चाहिए; निर्णय का आधार केवल अनुमानों, अटकलों
या बाहरी दबाव पर नहीं होना चाहिए। आम तौर पर प्राधिकारी प्रत्येक निर्णायक तथ्य
पर संक्षेप में विचार कर यह बताता है कि कौन से तथ्य स्वीकार किए गए, किन साक्ष्यों को अधिक महत्व दिया गया और किन्हें खारिज किया गया। तकनीकी
मामलों में प्राधिकारी को कभी-कभी विशेषज्ञ सलाह लेने का विकल्प भी होता है,
पर उस स्थिति में भी पक्षों को उस सलाह से परिचित कराने और अपनी
टिप्पणियाँ देने का अवसर देना चाहिए। समय पर निर्णय देना भी आवश्यक है—अनुचित देरी
से न्यायिक नुकसान और आदेश की वैधता पर प्रश्न उठ सकते हैं।
(6) सकारण आदेश जारी करना — अर्धन्यायिक
आदेश “speaking
order” होने चाहिए, अर्थात आदेश में केवल
निष्कर्ष नहीं बल्कि निर्णय तक पहुँचने के तर्क, साक्ष्यों
का संक्षिप्त उल्लेख और संबंधित कानून का उल्लेख स्पष्ट रूप से होना चाहिए। सकारण
आदेश से न केवल पक्षकारों को समझ आता है कि किसलिए और कैसे निर्णय लिया गया,
बल्कि appellate forum को भी अपील सुनवाई करने
में सहायता मिलती है। आदेश में यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि किन प्रावधानों के
आधार पर कौन-सी राहत/सज़ा/निषेधात्मक आदेश दिए जा रहे हैं तथा अपील या पुनर्विचार
के लिए कौन-सा प्राधिकरण उपलब्ध है और उसकी समय-सीमा क्या है। आदेश पर तारीख और
अधिकारी के हस्ताक्षर अनिवार्य हैं। Siemens Engineering &
Manufacturing Co. v. Union of India (1976) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कारणरहित आदेश को अवैध
ठहराया गया।
(7) अपील का प्रावधान — अधिकांश
अर्धन्यायिक व्यवस्थाओं में कानून अपील या पुनरीक्षण (revision)
की व्यवस्था देता है—कभी सीधे उच्चतर प्रशासनिक प्राधिकारी के पास,
कभी समर्पित अपीलीय न्यायाधिकरण या न्यायालयों के पास। अपील के आधार
सामान्यतः क़ानून की त्रुटि, तथ्यात्मक गलत निष्कर्ष,
प्रक्रिया का उल्लंघन (प्राकृतिक न्याय की अनदेखी), पक्षपात या निर्णय पर असंगतता होते हैं। कई बार अपील का प्रावधान नहीं हो
या अपीलीय प्राधिकार के निर्णय में विलंब हो रहा हो तो उच्च न्यायालयों के समक्ष Writ Petition
दायर
किया जा सकता है। अपील के दौरान अंतरिम राहत या Stay का आवेदन भी किया जा सकता है
जिससे आदेश के प्रभावों को रोका जा सके।
चुनौतियाँ
अर्धन्यायिक कार्यवाही के समक्ष कई
चुनौतियाँ भी मौजूद हैं, जो इसकी निष्पक्षता और प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकती
हैं। कई बार निर्णय लेने वाले प्राधिकारी की कानूनी समझ सीमित होती है, जिसके
कारण वे सही वैधानिक प्रावधानों या न्यायिक दृष्टांतों का पूर्ण उपयोग नहीं कर
पाते, और इससे आदेश की वैधता पर प्रश्न उठ सकते हैं। इसके
अलावा, कुछ मामलों में बाहरी दबाव या राजनीतिक हस्तक्षेप निर्णय
प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, जिससे निष्पक्षता पर संदेह पैदा होता है। एक अन्य प्रमुख
समस्या है प्रक्रिया में देरी, जो या तो अनावश्यक स्थगन, अपर्याप्त
संसाधनों, या लापरवाही के कारण होती है; इससे
न्याय मिलने में विलंब होता है और पक्षकारों पर आर्थिक व मानसिक बोझ बढ़ता है। कई
बार प्राधिकारी सकारण आदेश जारी नहीं करते हैं, जिसमें
निर्णय के पीछे का तर्क और साक्ष्यों का मूल्यांकन स्पष्ट नहीं होता, जिससे
आदेश की पारदर्शिता और उसका अपीलीय न्यायालय में रक्षणीयता
कमजोर हो जाता है। साथ ही, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अपूर्ण पालन—जैसे सुनवाई
का पर्याप्त अवसर न देना, साक्ष्यों की प्रतियाँ समय पर न उपलब्ध कराना, या
पक्षपातपूर्ण रुख अपनाना—निर्णय की वैधता को सीधे प्रभावित करता है और उच्चतर प्राधिकारों/
न्यायालयों में आदेश के रद्द होने की संभावना को बढ़ा देता है। कई मामलों में
प्राधिकार को भूलवश गलत निर्णय होने की स्थिति में विभागीय करवाई का भी डर बना
रहता है। हालाँकि Amresh
Shrivastava v. State of Madhya Pradesh (2025) में माननीय
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि कोई quasi-judicial अधिकारी
ने सद्भावपूर्वक — यद्यपि गलत — आदेश पारित किया, तो
केवल इसलिए अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हो सकती जब तक कोई भ्रष्टाचार, बाहरी
प्रभाव, या बेईमानी (malafide
motive) साबित न हो।
अर्धन्यायिक कार्यवाही में सुधार के सुझाव
(1) अर्धन्यायिक अधिकारियों के लिए नियमित कानूनी
प्रशिक्षण- अर्धन्यायिक अधिकारियों की कानूनी समझ को बेहतर बनाने के लिए
नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। प्रशिक्षण में नवीनतम विधिक प्रावधान, माननीय सर्वोच्च/उच्च न्यायालय के नवीन निर्णय, प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांत और आदेश लेखन (drafting of speaking orders) की तकनीक शामिल हों। इससे आदेशों की गुणवत्ता, पारदर्शिता
और न्यायसंगतता में वृद्धि होगी।
(2) आदेशों का डिजिटलीकरण और सार्वजनिक अभिलेख- पारित
आदेशों को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर अपलोड किया जाए ताकि कोई भी पक्ष या आम नागरिक
आसानी से उन्हें देख सके। आदेशों का डिजिटल अभिलेख (archive)
पारदर्शिता को बढ़ावा देगा और समान मामलों में मार्गदर्शन के लिए भी
सहायक होगा। डिजिटलीकरण से रिकॉर्ड सुरक्षित रहेंगे और अपील के समय आसान संदर्भ
उपलब्ध होगा।
(3) समयबद्ध निर्णय- कार्यवाही के प्रत्येक चरण के
लिए समय-सीमा तय की जाए, ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा
सके। स्थगन (adjournment) केवल उचित और अपरिहार्य कारणों पर
ही दिया जाए। समयबद्धता से पक्षकारों का विश्वास बढ़ेगा और विवाद समाधान की गति
तेज होगी।
(4) अपील तंत्र को सुदृढ़ करना- अपीलीय
निकायों (Appellate Authorities) की संख्या और क्षमता
बढ़ाई जाए, ताकि अपीलों का निपटारा समय पर हो सके। अपील
प्रक्रिया को सरल और सुलभ बनाया जाए, जिसमें ऑनलाइन अपील
दायर करने और सुनवाई की सुविधा भी उपलब्ध हो। अपील में अंतरिम राहत (interim
relief) देने का स्पष्ट प्रावधान रखा जाए, जिससे
अपील लंबित रहने के दौरान पक्षकार को अनावश्यक हानि न हो।
(5) स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करना-
अर्धन्यायिक प्राधिकरणों को बाहरी दबाव या राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने के
लिए संस्थागत सुरक्षा (institutional safeguards) दी
जाएं। नियुक्तियों, कार्यकाल और स्थानांतरण की प्रक्रिया को
पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाए। हित-संघर्ष (conflict of interest) की स्थिति में स्वतः अलग होने (recusal) का नियम
सख्ती से लागू किया जाए।
इस अब के बाबजूद अर्धन्यायिक कार्यवाही
का महत्व इस बात में निहित है कि यह नागरिकों के अधिकारों की प्रभावी सुरक्षा
सुनिश्चित करती है, क्योंकि इसमें प्रत्येक पक्ष को
निष्पक्ष सुनवाई और सकारण निर्णय का अवसर मिलता है। यह प्रक्रिया प्रशासनिक
निर्णयों की जवाबदेही भी तय करती है, जिससे प्राधिकारी
मनमाने ढंग से निर्णय लेने के बजाय कानून और साक्ष्यों के आधार पर कार्य करने को
बाध्य होते हैं। अर्धन्यायिक प्रणाली विवादों के त्वरित समाधान में सहायक होती है,
क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रिया की तुलना में अपेक्षाकृत सरल और तेज
होती है। इसके माध्यम से कई ऐसे मामलों का निपटारा हो जाता है जो अन्यथा
न्यायालयों में जाते, जिससे न्यायालयों का भार कम होता है और
वे अधिक गंभीर एवं जटिल मामलों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अंततः, यह प्रक्रिया कानून के शासन (Rule of Law) को सुदृढ़
करती है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि सभी निर्णय
वैधानिक ढांचे और न्यायसंगत सिद्धांतों के अनुरूप हों, जिससे
नागरिकों का शासन प्रणाली पर विश्वास बना रहे।
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