संराधन पदाधिकारियों के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 से जुड़े तथ्य
1. औद्योगिक विवाद
क्या है?
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के
अनुसार “industrial
dispute” means any dispute or difference between employers and employers, or
between employers and workmen, or between workmen and workmen, which is
connected with the employment or non-employment or the terms of employment or
with the conditions of labour, of any person; अर्थात "औद्योगिक विवाद" का मतलब किसी उद्योग या कार्यस्थल में उत्पन्न होने
वाले मतभेद या संघर्ष से है। यह विवाद निम्नलिखित पक्षों के बीच हो सकता है:
1.
नियोक्ता और नियोक्ता के बीच – जब दो या
अधिक कंपनियां या प्रबंधन इकाइयाँ किसी औद्योगिक या व्यावसायिक मुद्दे पर असहमति
रखती हैं। जैसे एक प्रबंधन इकाई कामगारों को बोनस देना चाहती है लेकिन दूसरी
प्रबंधन इकाई इस विषय पर असहमत है।
2.
नियोक्ता और श्रमिक के बीच – जब कोई
कर्मचारी या कर्मचारी समूह नौकरी से संबंधित किसी मुद्दे पर अपने नियोक्ता से
असहमत होता है।
3.
श्रमिक और श्रमिक के बीच – जब
कर्मचारियों के अलग-अलग गुट या व्यक्तियों के बीच कार्य की शर्तों, वेतन,
सुविधाओं आदि को लेकर विवाद उत्पन्न होता है।
यह विवाद निम्नलिखित
मामलों से संबंधित हो सकता है:
·
रोजगार – किसी व्यक्ति को नौकरी देने या
उससे रोजगार वापस लेने से संबंधित विवाद।
·
गैर-रोजगार – यदि किसी व्यक्ति को
अनुचित तरीके से काम से हटाया गया है या स्थायी-आदेश के आलोक में अनुकंपा नियुक्ति
नहीं की जा रही रही है।
·
नियुक्ति की शर्तें – वेतन,
काम के घंटे, छुट्टियाँ, बोनस, प्रोन्नति आदि से जुड़े विवाद।
·
श्रम की स्थिति – कार्य
की दशाएं, सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ,
अनुशासन, कार्यभार आदि से संबंधित विवाद।
2. औद्योगिक विवाद कौन उठा सकता है?
कोई
भी श्रमिक, जो किसी उद्योग में
कार्यरत है, औद्योगिक विवाद उठा
सकता है। "श्रमिक" (Workman) उस व्यक्ति को कहा जाता है
जो किसी उद्योग (Industry) में नियमित वेतन या पारिश्रमिक
(Hire or Reward) पर दस्तकारी कार्य (Manual Work), अकुशल या कुशल कार्य (Unskilled or Skilled Work), तकनीकी
कार्य (Technical Work), संचालन संबंधी कार्य
(Operational Work), लिपिकीय कार्य (Clerical Work), पर्यवेक्षण कार्य (Supervisory Work) का कार्य करता
हो ।
- श्रमिक का नियुक्ति
पत्र स्पष्ट रूप से लिखा हो या मौखिक सहमति के आधार पर नियुक्ति हुई हो, दोनों
स्थितियों में उसे "श्रमिक" माना जाएगा।
- यदि कोई
व्यक्ति औद्योगिक विवाद
(Industrial Dispute) में शामिल रहा हो और उसे निकाल दिया गया हो,
सेवा से मुक्त किया गया हो या छंटनी (Retrenchment) की गई हो, तो उसे भी "श्रमिक" की श्रेणी
में रखा जाएगा।
- सशस्त्र बलों
के कर्मी (वायु सेना अधिनियम, 1950; सेना अधिनियम, 1950;
नौसेना अधिनियम, 1957), पुलिस और जेल विभाग के
कर्मचारी, प्रबंधकीय या प्रशासनिक पदों पर कार्यरत व्यक्ति जो
मुख्य रूप से प्रबंधन (Managerial) या प्रशासनिक (Administrative)
कार्य करते हो तथा ₹10,000 से अधिक वेतन पाने
वाले पर्यवेक्षक को श्रमिक की परिभाषा में नहीं रखा जाएगा।
3. औद्योगिक विवाद कैसे उठाया जा सकता है?
अगर विवाद निकासी, बर्खास्तगी, सेवा समाप्ति या छंटनी से संबंधित हो,
तो श्रमिक इसे सीधे संराधन पदाधिकारी (Conciliation Officer) के
समक्ष उठा सकता है। अन्य मामलों में, विवाद को केवल संघ (यूनियन) या प्रबंधन द्वारा उठाया जाना आवश्यक होता है। यहाँ ध्यान
देने योग्य तथ्य यह है कि किसी भी विवाद को सुलह पदाधिकारी के समक्ष लाने के पूर्व
कामगार को अपने विवाद के विषय को नियोजक के समक्ष रखना होगा।
4. औद्योगिक विवाद कितने प्रकार के होते हैं?
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की द्वितीय अनुसूची उन मामलों को
शामिल करती है जो श्रम न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं और
जिन्हें अधिकार विवाद माना जाता है, जैसे:
- नियोक्ता
द्वारा पारित आदेश की वैधता या औचित्य।
- सेवा
शर्तों को नियंत्रित करने वाले स्थायी आदेशों का अनुप्रयोग और व्याख्या।
- श्रमिकों
की बर्खास्तगी या निकासी, जिसमें गलत तरीके से निकाले गए श्रमिकों की बहाली या
राहत भी शामिल है।
- कोई
प्रथागत रियायत या विशेषाधिकार का वापस लेना।
- हड़ताल
या तालाबंदी की वैधता।
- वे
सभी मामले जो तृतीय अनुसूची में निर्दिष्ट नहीं हैं।
तृतीय अनुसूची में औद्योगिक न्यायाधिकरणों के अधिकार
क्षेत्र वाले
विवाद आते हैं, जिन्हें हित विवाद के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे:
- वेतन, भुगतान की
अवधि और तरीका।
- भत्ते
और अन्य अनुग्रह राशि।
- कार्य
के घंटे और विश्राम अंतराल।
- वेतन
सहित अवकाश और छुट्टियाँ।
- बोनस, लाभांश,
भविष्य निधि और ग्रेच्युटी।
- स्थायी
आदेशों के अनुसार शिफ्ट कार्य प्रणाली।
- ग्रेड
के आधार पर वर्गीकरण।
- अनुशासन
संबंधी नियम।
- संरचनात्मक
सुधार ।
- श्रमिकों
की छंटनी और संस्थान का बंद होना।
- अन्य
कोई भी मामला जिसे अधिनियम में निर्दिष्ट किया जा सकता है।
5. कब व्यक्तिगत
विवाद औद्योगिक विवाद माना जाता है?
यदि कोई नियोक्ता किसी श्रमिक को नौकरी
से निकालता है, बर्खास्त करता है, छंटनी करता है,
या किसी अन्य तरीके से उसकी सेवा समाप्त
करता है, तो उस श्रमिक और उसके नियोक्ता के बीच उत्पन्न होने वाला कोई भी व्यक्तिगत
विवाद भी औद्योगिक विवाद माना जाएगा, भले ही उस विवाद में कोई अन्य श्रमिक या
श्रमिक संघ शामिल न हो । यदि किसी श्रमिक को नौकरी से निकाला जाता है और वह विवाद
उठाना चाहता है, तो उसे पहले सुलह अधिकारी के पास मामला ले
जाना होगा। यदि सुलह
अधिकारी 45 दिन तक कोई समाधान नहीं निकलता है, तो वह सीधे श्रम न्यायालय या औद्योगिक न्यायाधिकरण में आवेदन कर सकता है। यह
आवेदन 3 वर्ष के भीतर किया जाना आवश्यक है।
6. संराधन पदाधिकारी के क्या कर्तव्य
है?
अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार सुलह अधिकारी के लिए निम्नलिखित कर्तव्य
निर्धारित किये गये है-
- जब भी कोई
औद्योगिक विवाद मौजूद हो या इसकी आशंका हो, तो संराधन पदाधिकारी निर्धारित
प्रक्रिया के अनुसार संराधन कार्यवाही शुरू कर सकते हैं। यदि विवाद सार्वजनिक
उपयोगिता सेवा से संबंधित है और धारा 22 के तहत
नोटिस जारी किया गया है, तो सुलह
अधिकारी को अनिवार्य रूप से संराधन कार्यवाही करनी होगी।
- संराधन पदाधिकारी का
कर्तव्य है कि बिना किसी देरी के विवाद और उससे संबंधित सभी तथ्यों व परिस्थितियों
की जाँच करें, ताकि विवाद का उचित समाधान निकल सके। इसके लिए, वह सभी
उपयुक्त कदम उठा सकते हैं, ताकि
दोनों पक्ष न्यायपूर्ण और सौहार्दपूर्ण समझौते पर पहुँच सकें।
- यदि सुलह
कार्यवाहियों के दौरान, विवाद या
विवाद के किसी हिस्से का समाधान हो जाता है, तो सुलह
अधिकारी को उस समाधान का एक ज्ञापन (memorandum) तैयार
करना होगा, जिस पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हों। इसके साथ, समाधान की
रिपोर्ट संबंधित सरकार को भेजनी होगी।
- यदि सुलह
कार्यवाही के दौरान समाधान नहीं निकल पाता है, तो जांच
पूरी होने के तुरंत बाद, संराधन पदाधिकारी को संबंधित
सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट भेजनी होगी। इस रिपोर्ट में वह उन सभी कदमों का विवरण
देंगे, जो उन्होंने विवाद के तथ्यों और परिस्थितियों को जानने तथा समाधान लाने के
लिए उठाए, साथ ही यह बताएंगे कि आपकी राय में समाधान क्यों नहीं निकल सका।
- यदि
उपरोक्त विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर संबंधित सरकार को लगता है कि मामला बोर्ड, श्रम
न्यायालय, औद्योगिक न्यायाधिकरण या राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के पास भेजने योग्य है, तो वह ऐसा
रेफर कर सकती है। यदि सरकार ऐसा रेफर नहीं करती है, तो उसे
अपने निर्णय के कारणों को रिकॉर्ड करके विवाद में शामिल पक्षों को सूचित करना
होगा।
- संराधन कार्यवाही की शुरुआत के 14 दिनों के भीतर
रिपोर्ट जमा करनी अनिवार्य है, या यदि संबंधित सरकार द्वारा
कम अवधि निर्धारित की गई है तो उस अवधि के अनुसार रिपोर्ट जमा करनी होगी। इसके
अतिरिक्त, संराधन पदाधिकारी की स्वीकृति से, विवाद के सभी पक्षों की लिखित सहमति पर रिपोर्ट जमा करने की अवधि और बढ़ाई
जा सकती है।
7.
संराधन पदाधिकारी कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त है?
सुलह अधिकारी को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त है-
- सामान्य
तौर पर, औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत संराधन पदाधिकारी, अन्य
प्राधिकारी (जैसे मध्यस्थ, बोर्ड या न्यायालय) की तरह,
अपने विवेकानुसार कोई भी प्रक्रिया अपना सकते हैं। अर्थात्, वे उस प्रक्रिया का चयन करते हैं जिसे वे विवाद की जांच, सुनवाई या समाधान के लिए उपयुक्त समझते हैं।
- यदि कोई
मौजूदा या संभावित औद्योगिक विवाद (Industrial Dispute) है, तो सुलह अधिकारी को यह अधिकार है कि वे विवाद से संबंधित किसी भी
प्रतिष्ठान में प्रवेश कर सकें। इसके लिए, सुलह अधिकारी पहले
उचित सूचना (reasonable notice) देने के बाद, उस प्रतिष्ठान में जा सकते हैं जहाँ विवाद उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने
की आशंका है।
- संराधन
पदाधिकारी के पास सिविल कोर्ट के समान शक्तियाँ प्राप्त हैं। विशेष रूप से: वे
किसी भी उस व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित कर सकते हैं जिसे वे पूछताछ (examination)
के लिए आवश्यक मानते हैं। यदि आवश्यक हो तो उस व्यक्ति को शपथ (oath)
पर लाया जा सकता है।
- संराधन
पदाधिकारी प्रासंगिक दस्तावेज़ या अन्य सामग्रियों को मांग सकते हैं और उनका
निरीक्षण कर सकते हैं। ये दस्तावेज़ विवाद से संबंधित होने चाहिए या किसी पुरस्कार
(award) के क्रियान्वयन की जांच के लिए आवश्यक होने चाहिए।
8. संराधन पदाधिकारी द्वारा अधिनियम
की धारा 12(4) के अंतर्गत सरकार को प्रतिवेदन भेजने के पूर्व किन बातों का ध्यान
रखना चाहिए?
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 12(4) के अंतर्गत
प्रतिवेदन भेजने के पूर्व सुलह अधिकारी को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
-
प्रतिवेदन के साथ कामगार / युनियन द्वारा उठाए गए
विवाद की प्रति के साथ-साथ संराधन वार्ता के दौरान उपलब्ध कराए गए आवश्यक कागजातों
यथा Appointment
Letter, Termination Letter आदि संलग्न किया जाना चाहिए ।
- प्रतिवेदन के साथ विभिन्न तिथियों
को की गई संराधन कार्यवाही की छायाप्रति संलग्न किया जाना चाहिए ।
- प्रबंधन का पूरा नाम, पता आवश्यक रूप से
प्रतिवेदन में उल्लेखित करना चाहिए ।
- प्रतिवेदन में कामगार के नाम, पदनाम एवं उनके
कम्पनी / नियोजक का नाम को स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया जाना चाहिए।
- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा-12
(4) के प्रतिवेदन में कामगार / युनियन, प्रबंधन के साथ-साथ
संराधन पदाधिकारी भी अपना स्पष्ट मंतव्य उल्लेखित किया जाना चाहिए। मंतव्य में
वार्ता के असफल होने के कारणों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए ।
- प्रतिवेदन में 'अभिनिर्णयन के
बिन्दु' को भी स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया जाना चाहिए ।
- न्याय निर्णयार्थ किस श्रम
न्यायालय में भेजा जाना है, इसका भी उल्लेख किया जाना चाहिए ।
- श्रम न्यायालय में कामगार का
प्रतिनिधित्व किनके द्वारा किया जाएगा, इसका उल्लेख किया जाना चाहिए। साथ
हीं प्रतिनिधित्व करनेवाले का पूरा नाम, पता, पदनाम का भी उल्लेख रहना चाहिए ।
- संराधन वार्ता के प्रारंभ में ही
सुनिश्चित हो लेना चाहिए कि कामगार औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा-2 ( s)
के तहत् कामगार की श्रेणी में आते हैं अथवा नहीं?
-
यदि विवाद में एक से अधिक कामगार शामिल हैं तो 'अभिनिर्णयन के
बिन्दु' में सभी कामगारों का नाम उल्लेखित करते हुए कामगारों
की सूची पदनाम सहित प्रतिवेदन के साथ भेजना चाहिए।
-डॉ० गणेश कुमार झा
(सहायक
श्रमायुक्त)
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