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Factories Act Part-2 MCQs

Test Instructions –  Factories Act  All questions in this test are curated from the chapter on the Factories Act, 1948, as covered in our book  Labour Laws and Industrial Relations . 📚 If you’ve studied this chapter thoroughly, this quiz offers a chance to assess your understanding and retention. The test includes multiple-choice questions that focus on definitions, governance, benefits, and procedural aspects under the Act. ✅ Each correct answer awards you one mark. At the end of the test, your score will reflect your grasp of the subject and guide any revisions you might need. 🕰️ Take your time. Think through each question. Ready to begin? Let the assessment begin! Book- English Version - " Labour Laws & Industrial Relation " हिंदी संस्करण- " श्रम विधान एवं समाज कल्याण ” Factories Act Part-2 MCQs Factories Act, 1948 - Part-2 - MCQ Quiz Submit

भारतीय श्रम पर वैश्वीकरण का प्रभाव

नई आर्थिक नीति में अपनाए गए सुधारवादी उपायों के कारण आज अर्थव्यवस्था उदारीकरण एवं निजीकरण से आगे बढ़ते हुए विश्वव्यापीकरण के दौर में चल रही है। विश्वव्यापीकरण राष्ट्रों की राजनीतिक सीमाओं के आर-पार आर्थिक लेनदेन की प्रक्रिया और उनके प्रबंधन का स्वतंत्र प्रवाह है। इस विश्वव्यापीकरण में देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत किया जाता है अर्थात इसमें वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी तकनीकी तथा श्रम संबंधी अंतरराष्ट्रीय बाजारों का एकीकरण हो जाता है। उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की नीतियों को लागू करते समय यह धारणा थी कि इन नीतियों के फलस्वरूप नए उद्योग धंधे लगेंगे और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे, किंतु वैश्वीकरण अपने उद्येश्यों तक पहुँचने में सफल होता नही दिख रहा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार वैश्वीकरण ने आर्थिक अवसरों का सृजन तो किया है, लेकिन विकासशील देशों द्वारा रोजगार के अवसरों का सृजन करने की क्षमता में बढ़ोतरी न कर पाने के कारण उनकी बेरोजगारी भी चिंताजनक स्थिति में पहुंच गयी है। आज के इस टॉपिक में हम भारतीय श्रमिकों पर वैश्वीकरण के प्रभाव (Impact of Globalization on Indian Labourers) के बारे में चर्चा करेंगे।

भारतीय श्रम पर वैश्वीकरण का प्रभाव

भारतीय श्रम पर वैश्वीकरण का प्रभाव

वैश्वीकरण के कारण विशेषज्ञों द्वारा श्रमिकों से संबंधित निम्न समस्याओं का अनुभव किया जा रहा है-

👉 संगठित क्षेत्र में रोजगार में कमी- वैश्वीकरण की अवधि में संगठित क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में रोजगार कायम करने में विफल हुआ। रोजगार की स्थिति का निराशाजनक पहलू यह रहा कि संगठित क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि 1994- 2007 में नकारात्मक 0.03% रही। रोजगार लक्ष्य को प्राप्त करने में विफलता को अर्थव्यवस्था की बढती हुई पूंजी गहनता के रूप में देखा जा सकता है। 

👉 अनौपचारिक श्रम को बढ़ावा- वैश्वीकरण के बाद भारतीय एवं विदेशी पूंजी दोनों ने श्रम सुधार के लिए तर्क दिए। श्रम सुधार शब्द को नियुक्ति और छंटनी की बेरोकटोक स्वतंत्रता और बाजार में मांग और आपूर्ति के आधार पर मजदूरी के निर्धारण की स्वतंत्रता के रूप में लिया गया। हालाँकि सरकार ने नए विधान को पारित कर इस प्रकार की मांग को कानूनी रूप तो नहीं दिया लेकिन उसने अपने हस्तक्षेप को कम करना आरंभ कर दिया जिसके फलस्वरुप नियोजकों द्वारा बहुत से कार्यों के लिए स्थायी श्रमिक की जगह ठेका श्रमिक का प्रयोग किया जाने लगा। परिणामस्वरूप संगठित क्षेत्र में नौकरियों में कमी की हुई और अनौपचारिक श्रम को बढ़ावा मिला। ठेका श्रमिकों से काम करवा कर नियोजक पीएफ, ईएसआई, बोनस, उपादान आदि देने से बचने का प्रयत्न करते है।

👉 तालाबंदी और हड़ताल में वृद्धि- आर्थिक सुधार प्रक्रिया ने हड़ताल और तालाबंदी में भी बढ़ोतरी की। आर्थिक सुधार के बाद औद्योगिक विवाद के परिणाम स्वरुप मानव दिवसों की हानि में एकदम उछाल आया। प्रो० रूद्रदत्त के अनुसार इन सब का मुख्य कारण अतिरिक्त श्रम की मात्रा को कम करना, उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि प्राप्त करने के लिए श्रमिकों पर काम का बोझ बढ़ाना, अनियमित श्रम तथा ठेका श्रम को बढ़ाना, श्रम संघ को कमज़ोर करना आदि रहा। 

👉 श्रम लोच शीलता- आर्थिक सुधारों के समर्थक श्रम लोचशीलता अर्थात श्रमिकों को काम पर लगाने और हटाने के पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत करते है। द्वितीय श्रम आयोग ने भी श्रम लचीलापन की सिफारिश की है। आयोग का मानना है कि यदि नियोजक को उद्योग की स्थापना करते समय इस बात का अधिकार था कि वह कितने श्रमिकों को काम देगा तो उद्योग के कामकाज के दौरान भी उसे यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह कितने श्रमिकों को रखेगा। इसलिए आयोग ने श्रमिक परिवर्तन के लिए नोटिस देने की कानूनी आवश्यकता को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा। पूंजीपति वर्ग भी सरकार पर दबाव बनाता रहा कि व्यापार में श्रम लोच शीलता की स्वीकृति प्रदान की जाए, जिसका आधार दिया कि श्रम लागत कम कर ही बाजार प्रतिस्पर्धा का सामना किया जा सकता है। इससे बड़ी मात्रा में कामबंदी और छंटनी में बढ़ोतरी हुई। स्थायी श्रमिकों के स्थान पर अस्थायी अथवा ठेका श्रमिक रखे जाने लगे जिन्हें पीएफ, ईएसआई, उपादान, बोनस आदि से वंचित रखा जाने लगा। इसके कारण देश में बेरोजगारी में भी बढ़ोतरी देखी गयी।

👉 वास्तविक मजदूरी में कमी- नियोजक हमेशा कहते है कि श्रमिक उत्पादकता में बढ़ोतरी नहीं करते पर मजदूरी में बढ़ोतरी की माँग हमेशा करते रहते है। लेकिन आँकड़े बताते है कि 1988-1994 के बीच उत्पादकता में 3.2% की वृद्धि हुई जबकि वास्तविक मजदूरी में केवल 1% की वृद्धि हुई।

👉 श्रम सहभागिता में महिलाओं की वृद्धि- वैश्वीकरण के फलस्वरूप कम मजदूरी वाली नौकरियों में महिलाओं के रोजगार में वृद्धि हुई। यह प्रवृति विशेषकर निर्यातोन्मुख श्रम सघन निम्न टेक्नोलॉजी वाले उद्योगों जैसे- कपडा, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि में देखी गयी।

👉 आउटसोर्सिंग की नयी प्रवृति- आउटसोर्सिंग का अर्थ हुआ किसी बाहरी स्रोत से ठेके पर वस्तुएँ या सेवाएँ प्राप्त करना। वैश्वीकरण के बाद आउटसोर्सिंग से कार्य लेने की प्रथा तेजी से बढ़ी। आज सूचना टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आउटसोर्सिंग ने एक अंतर्राष्ट्रीय आयाम प्राप्त कर लिया है। वर्तमान में बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) क्षेत्र में कुशल पेशेवर तथा कुशल मानव संसाधन की माँग काफी अधिक है। इस समय में कॉल सेंटर, उपभोक्ता सेवाएँ, मानव संसाधन प्रबंधन, ऑनलाइन शिक्षा, क़ानूनी सलाह, टेलीमेडिसिन, एनीमेशन एवं मल्टीमीडिया आदि के क्षेत्र में इस प्रकार के विशेषज्ञों की माँग काफी अधिक है। आज गिग वर्कर्स (ऐसे श्रमिक जो कि परंपरागत नियोक्ता-कर्मचारी संबंध से बाहर होते हैं, जैसे फ्रीलांसर्स) तथा प्लेटफॉर्म वर्कर्स (ऐसे श्रमिक जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से दूसरे संगठनों या व्यक्तियों तक पहुंचते हैं और उन्हें विशिष्ट सेवाएं प्रदान करके धन अर्जित करते हैं) की संख्या दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है। लेकिन इस प्रकार के अधिकतर कामगारों कों साइबर कुली की संज्ञा दी जाती है क्योंकि उन्हें लंबे घंटे तक काम करना पड़ता है तथा नियोजक के नियुक्ति और छंटनी (Hire and Fire) के परम अधिकार के कारण उन्हें मानसिक दबाब में रहना पड़ता है। इसमें कुछ कामगार मोटे वेतन और सुविधा पाते है और वे श्रम संगठन की पद्धति में विश्वास नहीं करते है एवं व्यक्तिगत सौदेबाजी का प्रयोग कर अपने रोजगार को निर्धारित करते है। लेकिन अधिकांश श्रमिकों की स्थिति इस प्रकार के श्रम में दयनीय है तथा उन्हें कार्य के घंटों के अनुपात में काफी कम मजदूरी प्राप्त होती है।

👉 नए टेक्नोलॉजी के कारण श्रम अनुत्पादकता- जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विश्व के अन्य देशों से जुडती गयी उद्योगों में नए-नए तकनीकों का प्रयोग किया जाने लगा। जिसके बाद नियोजकों ने परम्परागत श्रमिकों को प्रशिक्षित कर उन्हें उन तकनीकों के अनुकूल बनाने के बजाए उन्हें निकाल कर नए कुशल श्रमिकों को रखना शुरू किया जिससे भारी मात्रा में श्रम-बल अनुत्पादक होने लगे और बेरोजगारी बढ़ने लगी। श्रम सघन उद्योगों के स्थान पर पूँजी और तकनीक सघन उद्योगों को प्राथमिकता दिया जाने लगा जिसने भी श्रम अनुत्पादकता को बढाया।

👉 श्रम कानूनों के प्रवर्तन में कमी- सरकार का पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के तरफ झुकाव ने श्रम कानूनों को लचीला बनाने के साथ ही उनके प्रवर्तन को भी निष्क्रिय करना शुरू कर दिया। श्रम कानूनों का प्रवर्तन कराने वाले श्रम प्रशासन को समय के साथ श्रम कल्याण के तरफ प्रेरित किया जाने लगा। श्रम प्रवर्तन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार ने भी श्रमिकों के हितों की उपेक्षा की है, जिसके कारण नियोजकों पर से सरकार का अंकुश कमजोर हुआ।

👉 कमजोर होते श्रमसंघ- वैश्वीकरण प्रक्रिया कंपनियों को कम श्रम लागत के लिए प्रोत्साहित करती है और इस प्रवृत्ति के कारण ट्रेड यूनियनों की शक्ति को हतोत्साहित किया जाता है। भारत में एक भावना है कि सभी यूनियन आधुनिकीकरण, प्रौद्योगिकी उन्नयन आदि के खिलाफ हैं ऐसे में सरकारों ने भी श्रमसंघों के अधिकारों के प्रति अपनी तटस्थ भूमिका निभायी। अंतरसंघीय प्रतिद्वंदिता तथा बाहरी नेतृत्व ने श्रमसंघों को कमजोर किया। श्रमसंघ श्रमिकों के अधिकार के लिए संघर्ष करने का साधन होने के बजाए राजनितिक हितों को साधने का साधन बन गया। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. वैश्वीकरण का श्रमिकों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- वैश्वीकरण ने भारतीय बाजारों को पूरी तरह से नया रूप दिया है लेकिन श्रमिकों पर ध्यान नहीं दिया। रोजगार सृजन भले ही बढ़ा हो लेकिन नौकरी की सुरक्षा नहीं हुई है। सस्ते श्रम के लिए श्रमिकों का व्यापक शोषण होता है। श्रमसंघ कमजोर हुए, श्रम कानूनों के प्रवर्तन में कमी आयी और इज ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर श्रमिकों के कानूनी सुरक्षा पर अंकुश लगाने का प्रयास किया गया।

2. वैश्वीकरण से श्रमिकों को क्या फायदे है?
उत्तर- श्रमिकों के रोजगार सृजन में बढ़ोतरी, कुशल श्रमिकों की बाजार में माँग एवं उच्च वेतन, ब्लू कॉलर जॉब में क्रय शक्ति में बढ़ोतरी आदि इसके प्रमुख फायदे है।

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