संराधन पदाधिकारियों के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 से जुड़े तथ्य 1. औद्योगिक विवाद क्या है ? औद्योगिक विवाद अधिनियम , 1947 के अनुसार “ industrial dispute” means any dispute or difference between employers and employers, or between employers and workmen, or between workmen and workmen, which is connected with the employment or non-employment or the terms of employment or with the conditions of labour, of any person; अर्थात " औद्योगिक विवाद" का मतलब किसी उद्योग या कार्यस्थल में उत्पन्न होने वाले मतभेद या संघर्ष से है। यह विवाद निम्नलिखित पक्षों के बीच हो सकता है: 1. नियोक्ता और नियोक्ता के बीच – जब दो या अधिक कंपनियां या प्रबंधन इकाइयाँ किसी औद्योगिक या व्यावसायिक मुद्दे पर असहमति रखती हैं। जैसे एक प्रबंधन इकाई कामगारों को बोनस देना चाहती है लेकिन दूसरी प्रबंधन इकाई इस विषय पर असहमत है। 2. नियोक्ता और श्रमिक के बीच – जब कोई कर्मचारी या कर्मचारी समूह नौकरी से संबंधित...
सभ्य कहलाने के लिए, एक समाज को अपने श्रमिक वर्ग को मनुष्य के रूप में सम्मान और सुरक्षा के साथ जीने का अधिकार देना होगा। यह सोच मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और संयुक्त राष्ट्र, संगठन की प्रस्तावना में निहित है। मजदूर वर्ग की आकांक्षा राष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्र के संविधान में अभिव्यक्त होती है। भारत ने स्वतंत्र होने के बाद, 26 अप्रैल 1949 को एक वृहत एवं शक्तिशाली संविधान को अपनाया। भारतीय संविधान एक अद्वितीय बुनियादी राष्ट्रीय दस्तावेज है। शासन के लिए बुनियादी सिद्धांत प्रदान करने के अलावा, यह समाज के कमजोर वर्ग, विशेष रूप से श्रमिक वर्ग की आकांक्षाओं को यथेष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। यह भी इतिहास की एक अजीब घटना है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और मजदूर वर्ग की मुक्ति का संघर्ष एक साथ हुआ और हमारे नेताओं ने मजदूरों की भलाई और भारत की आजादी दोनों के लिए संघर्ष किया। इस दौरान उन्होंने मजदूर वर्ग से कुछ वादे और प्रतिज्ञा किए, जिन्हें आजादी के बाद पूरा किया जाना था। उन सभी वादों और प्रतिज्ञाओं की अभिव्यक्ति संविधान में मिलती है। भारतीय संविधान की त्रिमूर्ति, प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, मौलिक सिद्धांतों को समाहित करते हैं, जो श्रम कानूनों सहित सभी विधानों को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यह संवैधानिक त्रिमूर्ति अपने नागरिकों को "समाजवादी स्वरुप का समाज" और "कल्याणकारी राज्य" बनाने का आश्वासन देती है और सभी कानून, विशेष रूप से श्रम कानून, उनसे अत्याधिक से प्रभावित होते हुए दिखाई देते हैं। हालाँकि संविधान के सभी उपबंध सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू है तथापि कुछ उपबंध प्रत्यक्षतः तो कुछ परोक्ष रूप से भारतीय संविधान में श्रमिकों से संबंधित प्रावधान (Provisions related to labour in the Indian Constitution) दिखाई देते है।
भारतीय संविधान में श्रमिकों से संबंधित प्रावधान
प्रस्तावना
- समाजवाद- समाजवाद का उद्येश्य गरीबी, बीमारी, उपेक्षा एवं अवसर की असमानता को समाप्त करना है।
- सामाजिक न्याय- सभी व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव के समान व्यवहार हो, जो श्रमिक वर्ग के लिए भी अपेक्षित है।
- आर्थिक न्याय- इसके तहत संपदा, आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना है जो श्रमिकों को आर्थिक रूप से सबल बनाएगा।
- राजनैतिक न्याय- व्यक्ति को अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का समान अधिकार है। जिसे श्रमिक प्रायः अपने श्रमसंघों के माध्यम से करते है।
- प्रतिष्ठा और अवसर की समता- इसके द्वारा समाज के किसी भी वर्ग के विशेषाधिकार की समाप्ति और बिना किसी भेदभाव के हर किसी को समान अवसर प्रदान करने का संकल्प किया गया है, जो श्रमिकों के लिए भी आवश्यक है।
मूल अधिकार
- अनु० 14- कानून के समक्ष समता; नियोजक सामाजिक-आर्थिक रूप से मज़बूत होते है ऐसे में श्रमिक को यह अनुच्छेद सबल बनाता है। अनु० 15- भेदभाव का प्रतिषेध; राज्य धर्म, मूल, जाति, रंग, लिंग या जन्मस्थान को लेकर किसी से भेद नहीं करेगा ऐसे में श्रमिक भी अपनी योग्यता के अनुसार अपने कौशल का प्रदर्शन कर सकते है।
- अनु० 16- अवसर की समानता; देश के विभिन्न संस्थानों में श्रमिकों को भी नियोजित किया जाता है जिसमें उन्हें रोजगार के समान अवसर प्राप्त होंगे।
- अनु० 19- छह अधिकारों की रक्षा; इन अधिकारों के आधार पर श्रमिकों को अपने विचार प्रकट करने, सभा करने, संघ बनाने, देश में कही भी आने-जाने, देश में किसी भी जगह बसने तथा कोई भी रोजगार करने का अधिकार प्राप्त होता है।
- अनु० 23- मानव दुर्व्यापार और बलात श्रम का निषेध; इसके द्वारा बलात श्रम को प्रतिषेधित किया गया है जिसके अनुपालन के लिए बंधुआ श्रम-प्रथा (उत्सादन) अधिनियम, 1976, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 आदि बनाये गए है।
- अनु०- 24- कारखाना आदि में बालकों के नियोजन का निषेध; इस दिशा में बाल एवं किशोर श्रम (प्र० एवं वि०) अधिनियम सबसे प्रभावी श्रम अधिनियम है। इसके अलावे कारखाना अधिनियम ,1948, खान अधिनियम, 1952, प्रशिक्षु अधिनियम, 1961 आदि भी इससे जुड़े है।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
- अनु०38- लोक कल्याण में अभिवृद्धि; यह अनुच्छेद राज्य को लोक कल्याण का प्रयास करने को कहता है और श्रमिक भी राज्य के नागरिक है ऐसे में श्रमिकों के कल्याण का कार्य भी राज्य करें।
- अनु० 39 तथा 39(क)- सुरक्षित करना; इस अनुच्छेद के द्वारा श्रमिकों को भी जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन, कामगारों के स्वास्थ्य की सुरक्षा तथा बालकों के कल्याण तथा गरीबों को निःशुल्क न्याय देने की बात कही गयी है। मनरेगा, समान पारिश्रमिक अधिनियम, विभिन्न अधिनियमों में स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा कल्याण का प्रावधान इसी उद्येश्य से किया गया है।
- अनु० 41- समाजिक सुरक्षा; श्रमिकों को काम पाने, शिक्षा पाने और बेरोजगारी, बुढ़ापा तथा निःशक्तता की दशाओं में लोक सहायता पाने का अधिकार है।
- अनु० 42- कार्य की मानवीय दशा तथा प्रसूति सहायता; यह अनुच्छेद श्रमिकों के लिए काम की मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता का उपबंध करता है। इसके तहत मातृत्व हितलाभ अधि० तथा कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम जैसे प्रावधान किये गए है।
- अनु० 43- निर्वाह मजदूरी एवं जीवन का उच्च जीवन स्तर; सरकार का प्रयास रहेगा की नियोजित व्यक्ति को जीवन निर्वाह मजदूरी प्राप्त हो तथा उसके जीवन स्तर में सुधार आये। श्रमिकों के लिए सरकार ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम तथा मजदूरी भुगतान अधिनियम जैसे प्रावधान किए गए है। हालाँकि न्यूनतम मजदूरी की दर जीवन निर्वाह मजदूरी से कम होता है।
- अनु० 43A- प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता; सरकार ऐसी व्यवस्था करेगी की श्रमिक प्रबंधन में नियोजकों को सहयोग दें। कार्य समिति, संयुक्त प्रबंधन समिति, कर्मशाला परिषद् आदि इसके लिए किए गए प्रयास के रूप में देखे जाते है।
- अनु० 45- अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा; इसके तहत की बात कही गयी है। इसका सही से अनुपालन हो तो बाल श्रम की समस्या भी नियंत्रित हो सकती है।
सप्तम अनुसूची
- संघ सूची- इसके अंतर्गत रखे गए विषयों पर केंद्र सरकार श्रम अधिनियम एवं नियम बनाती है तथा उनका प्रवर्तन करती है, जैसे खान, तेल क्षेत्र, पत्तन, रेलवे, डाक सेवा, संचार आदि। इसके अलावे एक से अधिक राज्यों का श्रम संबंधी विवाद, प्रवासी श्रमिक की सुरक्षा तथा आईएलओ से जुड़े मुद्दे भी केद्र सरकार ही देखती है। इसमें शामिल प्रविष्टि है- i) प्रविष्टि संख्या-55; श्रम विनियमन, खानों और तेल भंडारों में सुरक्षा; ii) प्रविष्टि संख्या-61; केन्द्रीय कर्मचारियों से संबंधित औद्योगिक विवाद तथा iii) प्रविष्टि संख्या-65; व्यावसायिक प्रशिक्षण हेतु संघीय एजेंसियाँ और संस्थान।
- राज्य सूची- राज्य क्षेत्राधिकार अंतर्गत आने वाले विषयों पर अधिनियम एवं नियम बनाना तथा उसका प्रवर्तन करवाना राज्य का उत्तरदायित्व है। श्रमिकों के मामलें में राज्य सरकारें पेंशन, बेरोजगारी, अशक्तों को राहत व अन्य सामाजिक विषय देखती है।
- समवर्ती सूची- इस सूची के विषय पर सामान्यतः केंद्र कानून बनाती है और समुचित सरकार नियम बनाकर उसका प्रवर्तन कराती है। श्रमसंघ, औद्योगिक विवाद, सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा, प्रसूति हितलाभ, श्रम सांख्यिकी जैसे विषय इसमें आते है। इसमें शामिल प्रविष्टि है- i) प्रविष्टि संख्या-22; श्रम संगठन, औद्योगिक और श्रम विवाद; ii) प्रविष्टि संख्या-23; सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, रोजगार और बेरोजगार; iii) प्रविष्टि संख्या-24; काम की दशाएँ, भविष्य-निधि, नियोक्ता के दायित्व, कर्मकार प्रतिकार, पेंशन, प्रसूति लाभ सहित श्रमिकों के कल्याण से जुड़े विषय।
श्रम प्रशासन
- अनु० 256 तथा 257- इसके तहत केंद्र सरकार को संसद द्वारा बनाये गए कानूनों के अनुपालन के संबंध में आवश्यक दिशा-निर्देश देने की शक्ति दी गयी है।
- अनु० 258- संसद द्वारा बनाए जानेवाले नए कानून जिसपर राज्य को विधान बनाने की शक्ति नहीं है उसके संबंध में केंद्र सरकार राज्य सरकार को अधिकार दे सकती है। केंद्र और राज्य के बनाये गए श्रम विधान में यदि विरोधाभाष हो तो केंद्र द्वारा पारित कानून सर्वोच्च माना जाएगा।
Comments