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सरकारी विभागों के मजदूरों के लिए श्रम कानून (Labour Law for Outsourcing Workers)

 

श्रम, श्रम विधान एवं श्रम विधान के सिद्धांत

सामान्यतया हम परिश्रम या कार्य को ही श्रम के रूप में जानते है परंतु अर्थशास्त्र में श्रम को विशेष अर्थों में लिया जाता है। यहाँ श्रम से तात्पर्य उन सभी मानवीय शारीरिक तथा मानसिक श्रम से है जो उत्पादन के उद्येश्य से किया जाता है। श्रम एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले शारीरिक, मानसिक और सामाजिक प्रयासों की मात्रा है। श्रम उत्पादन के चार कारकों में से एक है जो आपूर्ति को चलाता है। सुबह को यदि आप पार्क में टहलते है तो वह अर्थशास्त्र के नजर में श्रम नहीं है क्योंकि उसका उद्येश्य धनोपार्जन नहीं है। मार्शल के अनुसार “श्रम से अभिप्राय मनुष्य के आर्थिक कार्य से है चाहे वह हाथ से किया जाए या मस्तिष्क से किया जाए।” जेवंस के अनुसार “श्रम वह मानसिक या शारीरिक प्रयत्न है जो अंशतः या पुर्णतः कार्य से प्राप्त होनेवाले सुख के अतिरिक्त, अन्य किसी आर्थिक उद्येश्य से किया जाता है।” अर्थात उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र में श्रम के लिए मानवीय प्रयत्न, मानसिक एवं शारीरिक श्रम, आर्थिक लाभ तथा भौतिक या अभौतिक पदार्थों का निर्माण होना आवश्यक है। आज के इस टॉपिक में हम श्रम, श्रम विधान एवं श्रम विधान के सिद्धांत (Labour, Labour Laws and Theory of Labour Law) के बारे में चर्चा करेंगे।

श्रम, श्रम विधान एवं श्रम विधान के सिद्धांत

श्रम, श्रम विधान एवं श्रम विधान के सिद्धांत


श्रम संबंधी विभिन्न अवधारणाएँ है, जो निम्न प्रकार से है-
i. श्रम की वस्तुगत अवधारण- इस अवधारणा के अनुसार श्रमिक के श्रम की कीमत अर्थात मजदूरी का निर्धारण उसी प्रकार से किया जाता है जिस प्रकार से वस्तुओं की कीमत का निर्धारण। हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने फिलेडेल्फिया घोषणा-पत्र में इस बात पर बल दिया है कि “श्रम एक वस्तु नहीं है।”

ii. श्रम की मशीन रुपी अवधारणा- इस अवधारणा के तहत नियोजक श्रमिक को एक मशीन की तरह कार्य करने वाले प्राणी के रूप में समझता है, जिसके कारण श्रमिकों के प्रति अमानवीय दृष्टिकोण का विकास होता है।

iii. श्रम की सद्भावना अवधारणा- नियोजकों को समय के साथ अहसास हुआ कि श्रमिकों को मशीन समझने से उनकी कार्य के प्रति अभिरुचि तथा लगाव में कमी रहती है जिसके कारण उन्होंने श्रमिकों के प्रति पैतृक दृष्टिकोण को अपनाना शुरू किया।

iv. श्रम की मानवीय अवधारणा- इस अवधारणा के तहत श्रमिकों को मशीन के बजाय मानव के रूप में देखा जाने लगा और इस बात का प्रयास किया जाने लगा की उनके मानवीय मूल्यों का आदर किया जाना चाहिये।

v. औद्योगिक प्रजातंत्र की अवधारणा- इस अवधारणा के अनुसार उद्योग के संबध में सम्पूर्ण उत्तरदायित्व केवल नियोजकों का ही नहीं बल्कि श्रमिकों का भी होता है। इसके तहत श्रमिकों को भी अपनी कार्य की शर्तों तथा कार्य की दशाओं के संबंध में परामर्श देने का अधिकार होता है। प्रबंधन में श्रमिकों की सहभागिता इसी अवधारणा से जुडी है।

श्रम की विशेषता

श्रम उत्पादन के चार कारकों में से एक प्रमुख करक है जो उत्पादन के अन्य साधनों से अलग है। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नवत है-

👉 यह उत्पादन का सक्रिय साधन है जिसके क्रियाशीलता से भूमि और पूँजी मिलकर उत्पादन करते है।

👉 भूमि और पूँजी को उसके स्वामी से अलग किया जा सकता है जबकि श्रम को श्रमिक से अलग नहीं किया जा सकता है।

👉 आधुनिक युग में मशीनों का महत्व बढ़ने के बाबजूद श्रम उत्पत्ति का अनिवार्य साधन है।

👉 श्रम पूँजी से कम लेकिन भूमि से अधिक गतिशील होता है।

👉 श्रम का पूर्ति वक्र पीछे की ओर मुड़ता है अर्थात मजदूरी की दर बढ़ने पर श्रमिक कार्य के घंटे कम कर देता है।

👉 श्रमिक जिन वस्तुओं का उत्पादन करते है वे उसका उपभोग भी करते है इसलिए श्रम साधन और साध्य दोनों है।

👉 श्रम में पूँजी निवेश कर अधिक कुशलता प्राप्त की जा सकती है जिससे और अधिक आय प्राप्त किया जा सकता है।

श्रम विधान की परिभाषा

मुख्यतः विधायिका द्वारा पारित कानून एवं अस्थायी अध्यादेश (ordinances) विधान कहलाते है। कभी कभी न्यायपालिका के निर्णय, कार्यकारी प्रशासन के निर्देश, क्षेत्रीय एवं स्थानीय निकायों द्वारा बनाये गए नियमों (Rules) तथा विनियमों (regulations) को भी इसमे शामिल किया जाता है।

👉 विधान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “The system of rules which a particular country or community recognizes as Regulating the actions of its members and which it may enforce by the imposition of penalties.” अर्थात नियमों की वह प्रथा जिसे किसी देश या समुदाय ने अपने सदस्यों के कार्यों को विनियमित करने के दृष्टिकोण से मान्यता दी है तथा जो दंड प्रावधान के अधिरोपण द्वारा प्रवर्तनीय होता है।

👉 अपने देश में सरकार के तीन अंग है- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका द्वारा ही समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं के उन्मूलन एवं देश के प्रशासन तथा विकास के दृष्टिकोण से विधान पारित किए जाते है। सामान्यतया जब विधेयक (bill) जो संसद (parliament) / विधानमंडल (legislative) द्वारा पारित होने के बाद राष्ट्रपति/राज्यपाल की सहमति प्राप्त कर लेता है विधान/कानून कहलाता है।

👉 सामाजिक विश्वकोष (Dictionary of Sociology) के अनुसार वैसे विधान जिनका उद्येश्य समाज के उन समूहों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में सुधार लाना है, जो समाज में कमजोर स्थिति में है तथा जो उम्र, लिंग, शारीरिक दशाओं, मानसिक बाधाओं एवं आर्थिक या सामाजिक कारणों के कारण स्वयं मानवोचित ढंग से जीवन-यापन करने में असमर्थ है सामाजिक विधान कहे जाते है। सामाजिक विधान मुख्यतः समाज की सामाजिक असमानता को कम करने का प्रयास करता है। सामाजिक विधान के विषय- विवाह, दहेज़, तालाक, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा, बाल अधिकार, श्रम कल्याण, बंधुआ श्रम प्रथा का उन्मूलन, छुआछूत का उन्मूलन, कुरीतियों को रोकना, सामाजिक शोषण, सामाजिक सुरक्षा तथा समाज कल्याण आदि होते है।

👉 श्रम विधान सामाजिक विधान का ही एक प्रकार है जिसका उद्येश्य श्रमिकों के श्रम की दशाओं तथा श्रम कल्याण से जुड़ा होता है। श्रम कानून का उद्येश्य श्रम समस्याओं को नियंत्रित करना तथा श्रमिकों के शोषण को रोकना है। श्रम कानून श्रमिकों /श्रम-संघों, नियोजकों/ नियोजक संगठनो तथा सरकार के बीच त्रिपक्षीय संबंध को परिभाषित करता है।

👉 श्रम विधान को परिभाषित करते हुए प्रो० के०एन०वेद ने कहा है कि “Labour legislation deals with employment and unemployment, wage, working conditions, social security and Labour welfare of industrially employed person.” अर्थात श्रम कानून रोजगार और बेरोजगारी, मजदूरी, काम करने की स्थिति, सामाजिक सुरक्षा और उद्योगों में नियोजित व्यक्ति के श्रम कल्याण से संबंधित है।

श्रम विधान की आवश्यकता

जैसा की हमने देखा श्रमिकों को अपने कार्य के दौरान कार्यस्थल पर कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिसे देखते हुए श्रम विधान निम्नलिखित कारणों से आवश्यक हो जात है-

👉 नियोजकों के शोषण से रक्षा- किसी भी नियोजन में श्रमिक और नियोजक दो वर्ग होते है, जिनके कई हित परस्पर विरोधी है। अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में नियोजक श्रमिकों का अत्यधिक शोषण न कर सके इसके लिए एक सुदृढ़ श्रम कानून की आवश्यकता होती है।

👉 श्रमिकों की अज्ञानता- श्रमिकों में अशिक्षा तथा अज्ञानता का स्तर सामान्य से ज्यादा होता है। ऐसे में वे सही तरीके से संगठित होकर अपने अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम नही हो पाते है और सरकार को उन्हें संरक्षित करने के लिए श्रम विधानों का सहारा लेना पड़ता है।

👉 राष्ट्र का आर्थिक विकास- देश के आर्थिक विकास को गति देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य किया जाता है। यदि उद्योगों में श्रमिक और नियोजक के बीच उत्पन्न अशांति को कम नहीं किया जाएगा तो आर्थिक विकास में बाधा पहुंचेगी। ऐसे में औद्योगिक शांति का बढ़ावा देने के लिए श्रम विधान आवश्यक हो जाते है।

👉 कल्याणकारी राज्य की संकल्पना- देश में श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग है, जिसकी लोकतंत्र में अहम् भूमिका होती है। ऐसे में उनके लिए किए जाने वाले संरक्षणवादी एवं कल्याणकारी उपायों से न केवल राजनीतिक हितों की पूर्ति होती है बल्कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी पुष्ट होती है।

👉 अंतर्राष्ट्रीय दायित्व- भारत अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का संस्थापक सदस्य है। ऐसे में आईएलओ द्वारा अपनाये जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों के अनुरूप दिए गए अभिसमय को अनुसमर्थित कर भी श्रम विधान बनाये जाते है।

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श्रम विधान उत्पत्ति


श्रम विधान उत्पत्ति के कई कारण है जिनमें से प्रमुख कारण निम्न है-

👉 आरंभिक औद्योगीकरण से उत्पन्न समस्या- औद्योगीकरण के पश्चात अधिक मुनाफा कमाने के लिए नियोजकों ने श्रमिकों का शोषण शुरू किया। जिसके बाद श्रम की दशाओं के विनियमन के लिए श्रम कानून की आवश्यकता प्रतीत हुई।

👉 श्रमसंघों का शक्तिशाली होना- श्रमिकों के निरंतर शोषण से मजदूर वर्ग संगठित होकर अपने अधिकारों की बात करने लगे।

👉 कल्याणकारी राज्य की अवधारण- वैश्विक परिदृश्य में लोकतंत्रात्मक कल्याणकारी राज्य की अवधारण के कारण सभी व्यक्तियों के लिए सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अधिकार सुनिश्चित किए जाने लगे।

👉 समाजवादी सिद्धांत का बढ़ता प्रभाव- कालमार्क्स के समाजवाद के सिद्धांत ने भी राज्य को कमज़ोर मजदूर वर्गों के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया।

👉 स्वतंत्रता एवं समानता में बढ़ोतरी- लोकतंत्र और समाजवाद का बढ़ता प्रभाव भी लोगों में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता में बढ़ोतरी का कारण बना। श्रमिक अपने कल्याणार्थ श्रम कानूनों की माँग करने लगे।

👉 अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की बढती भूमिका- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सदस्य देशों में श्रम की दशाओं में सुधार और कल्याण के लिए कानून बनाने का दबाब बढाया।

श्रम विधान के अंतर्गत शामिल विषय

श्रम विधान के अंतर्गत शामिल महत्वपूर्ण विषय है-

👉 कार्य के घंटे- इसके तहत दैनिक कार्य के घंटे, विश्राम अंतराल, अतिकाल, साप्ताहिक अवकाश, आकस्मिक अवकाश, चिकित्सीय अवकाश, सवेतन छुट्टी, मातृत्व अवकाश, आदि विषय आते है।

👉 मजदूरी- इसके अंतर्गत मजदूरी की मात्रा, मजदूरी का भुगतान, मजदूरी से कटौती, बोनस, भविष्य निधि, उपादान, क्षतिपूर्ति, आदि विषय आते है।

👉 नियोजन की शर्तें- इसमें स्थायी आदेश, संविदा, समझौता-पत्र, पंचाट, आदि विषय शामिल है।

👉 कार्यस्थल की भौतिक दशाएँ- इसके तहत सफाई, प्रकाश, तापमान, संवातन, पेयजल,साफ़-सफाई, शौंचालय, आदि विषय शामिल होते है।

👉 औद्योगिक प्रजातंत्र- इसमें सामूहिक सौदेबाजी, प्रबंधन में श्रमिकों की सहभागिता, श्रमसंघ आदि विषय आते है।

👉 औद्यगिक विवाद- इसके अंतर्गत हड़ताल, तालाबंदी, छंटनी, कामबंदी, बंदी, औद्योगिक विवाद सुलझाने के तरीके, आदि विषय शामिल है।

👉 श्रम कल्याण- इसके तहत कल्याण निधि, समाजिक सुरक्षा, आदि शामिल होते है।

👉 अन्य- इसके अलावे औद्योगिक नीति, श्रम नीति, आर्थिक विकास जैसे विषयों का भी ध्यान श्रम विधान में रखा जाता है।

श्रम विधान के सिद्धांत

1937 में रजनीकांत दास (R.K.Das) ने अपने पुस्तक Principles and Problems of Indian Labour legislation में श्रम विधान के चार सिद्धांतों का वर्णन किया है। जो निम्न प्रकार से है-

1. सामाजिक न्याय-


👉दासत्व का उन्मूलन (Abolition of Servitude);- दास प्रथा, कृषि क्षेत्र में दास प्रथा, बंधुआ श्रमिक (Bonded Labour) , बाल-बंधुवा श्रमिक तथा बेगार (Forced Labour) का अंत।

👉संगठन की स्वतंत्रता (Freedom of Association);- नियोजकों से अपने अधिकारों की रक्षा तथा सरकार से अपने हितार्थ कानून बनाने के लिए संघ बनाने की स्वतंत्रता।

👉सामूहिक सौदेबाजी (Collective Bargaining);- सशक्त श्रम-संघ द्वारा नियोजकों या उनके प्रतिनिधि अथवा संगठनो के साथ बैठकर अपने हित की बात करना।

👉औद्योगिक सुलह (industrial Conciliation);- औद्योगिक विवादों के रोकथाम के लिए निर्धारित तंत्र द्वारा औद्योगिक सुलह करना।

2. समाज कल्याण-


👉बाल्यावस्था का विकास (Development of Childhood);- बाल श्रमिकों के स्वास्थ्य की रक्षा, नियोजन के लिए न्यूनतम उम्र का निर्धारण, चिकत्सीय जाँच तथा उनका कल्याण, आदि इसमें शामिल है।

👉शिक्षा का अवसर (Opportunity of Education);- बालकों के लिए अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सहित सभी के लिए शिक्षा का अवसर।

👉स्त्रीत्व का संरक्षण (Conservation of womanhood);- स्त्री श्रमिकों के लिए अधिकतम कार्य के घंटों का नियतन, स्वास्थ्य-सुरक्षा, खानों तथा खतरनाक कामों में प्रतिबन्ध, नियोजन के लिए न्यूनतम उम्र का निर्धारण, रात्रिकालीन कार्य का विनियमन आदि।

👉पर्यावरण का सुधार (Improvement of Environment);- कल्याणकारी राज्य द्वारा आवास, स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा संस्कृति को दिया जाने वाला महत्व भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण में सुधार लाता है।

3. राष्ट्रीय अर्थनीति-


👉उद्योगों का विकास (Development of industry);- उद्योगों का विकास आर्थिक संपन्नता के लिए आवश्यक है।

👉कार्य की दशाओं का नियंत्रण (Regulations of working conditions);- बेहतर कार्य की दशाएँ जैसे कार्य के घंटे, विश्राम अंतराल, साप्ताहिक अवकाश, सवेतन छुट्टी, मजदूरी की मात्रा, बोनस, कार्यस्थल की भौतिक दशा आदि श्रमिकों का मनोबल बढ़ाते है जो आर्थिक प्रगति में सहायक होता है।

👉मजदूरी भुगतान का विनियमन (Regulation of wage payment);- सही एवं समय पर मजदूरी श्रमिकों के आर्थिक उन्नति के लिए आवश्यक है।

👉सामाजिक बीमा (Social Security);- सामाजिक बीमा श्रमिकों में सुरक्षा का भाव लाता है।

4. अंतर्राष्ट्रीय एकात्मता-


👉अंतर्राष्टीय श्रम संगठन (International Labour Organization);- अंतरर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मानक का अनुपालन श्रम कानूनों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समानता सुनिश्चित करेगा।

👉अभिसमय और सिफारिश (Convention and Recommendation;- अंतरर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मानक तय किए जाते है जिसे सदस्य राष्ट अंगीकृत करते है।

👉अनुसमर्थन का अनुपालन (Compliance of Ratification);- सदस्य राष्ट्र अंतरर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा तय किए गए मानक के अनुकूल अधिनियम और नियम बनाकर उनका अनुपालन सुनिश्चित करते है।

👉श्रम कानून पर प्रभाव (Effect on labour law);- विधायिका द्वारा बने विधानों के प्रभाव का समय-समय पर मूल्याङ्कन भी आवश्यक होता है।

आर० के दास ने इन सिद्धांतों का उल्लेख 1937 में किया था उसके बाद विश्व में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कई बदलाव हुए है। जैसा कि हम जानते है, भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ तथा इसने अपना संविधान बनाया। भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने अपने लिए कल्याणकारी राज्य की संकल्पना प्रस्तुत की तथा उसके मूल-अधिकार तथा नीति-निर्देशक तत्व में भी जन सामान्य को कई सारे अधिकार दिए गए। समय के साथ श्रमिक संगठन मज़बूत हुए, श्रमिकों में शिक्षा का प्रसार हुआ, अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण जैसे बदलाव हुए, अंतर्राष्ट्रीय अभिकरणों की भूमिका बढ़ी, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समृद्धि आदि के कारण श्रम विधान के सिद्धांत समय के साथ बदलते रहे। विचारकों ने आधुनिक श्रम विधान के सिद्धांत को मुख्यत: आठ भागों में वर्गीकृत किया है- (i) संरक्षा का सिद्धांत, (ii) विनियमन का सिद्धांत, (iii) निवारण का सिद्धांत, (iv) कल्याण का सिद्धांत, (v) न्याय का सिद्धांत, (vi) सुरक्षा का सिद्धांत, (vii) आर्थिक विकास का सिद्धांत तथा (viii) अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व का सिद्धांत। इन सिद्धांतों का उल्लेख श्रम विधान के प्रकार में किया गया है।

आधुनिक श्रम विधान के प्रकार


आधुनिक समय में आवश्यकता अनुरूप श्रम विधान के कई नए प्रकार हो गए है। हालाँकि ये वर्गीकरण एक-दुसरे से अंशतः जुड़े हुए है फिर भी व्यापक अर्थों में हम आधुनिक श्रम विधान को निम्न प्रकार से वर्गीकृत कर सकते है-

1) संरक्षात्मक- ऐसे श्रम कानून जिनका मुख्य उद्येश्य श्रमिकों को संरक्षा (Protection) प्रदान करना है इसके अंतर्गत आते है। इसके तहत श्रमिकों को कार्य की भौतिक दशाओं से संरक्षा, कार्य के घंटो का विनियमन, श्रमिकों के सुरक्षा की व्यवस्था, न्यूनतम मजदूरी, महिला एवं बालक सुरक्षा आदि से संबंधित विषय शामिल होते है। ये कानून श्रम की दशाओं और नियोजन की शर्तों के संबद्ध में केवल न्यूनतम मानक स्थापित करते है। विश्व का पहला कारखाना अधिनियम ब्रिटेन का शिशु स्वास्थ्य एवं नैतिकता अधिनियम, 1802 इस श्रेणी का पहला अधिनियम माना जा सकता है। भारत का कारखाना अधिनियम, 1948; खान अधिनियम, 1952; बगान श्रमिक अधिनियम, 1952; मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936; आदि इसके प्रमुख उदाहरण है।

2) विनियमात्मक- कई बार नियोजक और श्रमिक के मध्य संतुलन स्थापित नहीं होने के कारण आपसी विवाद बढ़ जाता है और उत्पादन की प्रक्रिया प्रभावित होती है जो अंततः राष्ट्रीय आर्थिक क्षति का कारण बनता है। ऐसे में विनियामात्मक (Regulatory) कानून बनाए जाते है जो संबधित हितधारकों को निश्चित अधिकार प्रदान कर उन्हें नियंत्रित करते है। ऐसे में कई विषयों यथा श्रमसंघ के अधिकार, हड़ताल, तालाबंदी, औद्योगिक विवाद सुलझाने के तरीके, श्रमिकों की सहभागिता आदि विषय पर नियमात्मक कानून बनाए जाते है। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947; श्रमसंघ अधिनियम, 1926; औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनिय, 1946; आदि इसके प्रमुख उदाहरण है।

3) प्रतिषेधात्मक- सामाजिक विकास के साथ-साथ कई ऐसी मूल्य-प्रणाली या प्रथाएँ प्रचलित होती है जिनका प्रतिषेध (Prohibition) समाज एवं राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक हो जाता है। जैसे बंधुआ प्रथा, छुआछूत प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, मद्यपान, दहेज़, वेश्यावृत्ति आदि विषय पर सख्त पाबंदी समाज के उत्थान के लिए आवश्यक हो जाता है। बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976; दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961; बिहार मद्यनिषेध अधिनियम, 2016; बिहार भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम, 1952; अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार उन्मूलन) अधिनियम, 1989 आदि। कुछ अधिनियम नियमात्मक और प्रतिषेधात्मक दोनों प्रकृति के होते है, जैसे- ठेका श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970; बाल एवं किशोर श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 आदि।

4) कल्याणात्मक- कल्याण (Welfare) एक व्यापक शब्द है, जिसमें सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक संरक्षा, सामाजिक न्याय ये सभी निहित होते है। सरकार द्वारा कल्याण-कोष की स्थापना कर अथवा नियोजकों पर विशेष दायित्व देकर कई कल्याणात्मक कानून बनाए गए है जिसके द्वारा श्रमिकों एवं उनके परिवार को चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन आदि की सुविधा प्रदान किया जाता है। जैसे- कोयला खान श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1947; अभ्रक खान श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1946; अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार अधिनियम, 1979; भवन एवं अन्य संनिर्माण कामगार उपकर अधिनियम, 1996; आदि।

5) न्यायात्मक- सामाजिक समानता सामाजिक न्याय (Justice) का मूल मंत्र है। श्रमिक समाज के कमज़ोर वर्ग है ऐसे में उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने हेतु आवश्यकतानुसार सरकारें कई न्यायात्मक कानून बनाती है। सामाजिक न्याय के तहत दास प्रथा उन्मूलन, समान वेतन, अस्पृश्यता निवारण, मानव तस्करी आदि विषयों पर विधान बनाए जाते है। जैसे- भारतीय दासता अधिनियम, 1843; सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955; समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 आदि।

6) सुरक्षात्मक- समाज के वंचित और कमजोर तबकों को सामाजिक सुरक्षा (Social Security) के उपकरणों से सुरक्षित करना एक कल्याणकारी राज्य की पहली प्राथमिकता होती है। औद्योगिक नियोजनों में दुर्घटना के फलस्वरूप मृत्यु या अशक्तता स्वाभाविक है। बुढ़ापा, बीमारी, बेरोजगारी, मातृत्व, अशक्तता तथा मृत्यु की दशा में श्रमिकों को सुरक्षित करने की आवश्यकता महसूस होती है। कई बार ये सुरक्षा अंशदान देकर मिलता है और कई बार यह सामाजिक सहायता के रूप में मिलता है। इसके तहत कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923; मातृत्व हितलाभ अधिनियम, 1961; उपादान भगतान अधिनियम, 1972; कर्मचारी भविष्य निधि तथा प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1952; कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम,1948; जैसे कानून शामिल होते है।

7) विकासात्मक- श्रमिकों की सुख-समृद्धि उनके आर्थिक विकास (Economic Development) पर निर्भर करता है। यदि नियोजक अपने लाभांश में से श्रमिकों को यथोचित श्रम मूल्य प्रदान नहीं करेगा तो उनका आर्थिक विकास अबरुद्ध होने के साथ-साथ औद्योगिक अशांति भी बढ़ेगी जिससे अंततः राष्ट्रीय विकास प्रभावित होगा। इसे देखते हुए ही मजदूरी, बोनस, भविष्य-निधि, महंगाई भत्ता जैसे विषयों पर श्रम कानून बनाए गए है, जैसे- बोनस अधिनियम, 1965; न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948; मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936; कर्मचारी भविष्य-निधि तथा प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1952 आदि।

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भारतीय श्रम विधान की मुख्य विशेषता


👉संविधान का प्रभाव- भारतीय श्रम विधान के अंतर्गत शामिल अधिनियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संविधान के अनुच्छेदों को प्रतिबिंबित करते है। जैसे संविधान का अनुच्छेद 23 मानव दुर्व्यपार एवं बलात श्रम को रोकता है, जिसके अनुपालन के लिए बंधुआ श्रम पद्धति (उत्सादन) अधिनियम, 1976 बनाया गया है। उसी प्रकार अनुच्छेद 39(घ) पुरुषों एवं स्त्रियों को सामान कार्य के लिए सामान वेतन की बात कहता है, जिसके अनुपालन के लिए समान परिश्रमिक अधिनियम, 1976 बनाया गया।

👉आईएलओ के सिफारिश का प्रभाव- भारत के कई श्रम कानूनों पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अभिसमयों और सिफारिशों का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। वर्तमान में भारत आईएलओ के 47 अभिसमय को अनुसमर्थित कर उनके अनुरूप अपने श्रम मानकों को स्थापित कर चुका है। जैसे हाल ही में भारत ने अभिसमय संख्या 138 तथा 182 को अनुसमर्थित कर बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 में संशोधन कर दिया है, जिसके तहत 14 वर्ष तक के बालकों को सभी व्यवसायों में तथा 14-18 वर्ष के किशोरों को खतरनाक व्यवसायों में कार्य करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है।

👉श्रम कानून का समवर्ती सूची में होना- अधिकांश श्रम कानून केद्र सरकार द्वारा पारित किए गए है, जैसे कारखाना अधिनियम, 1948, खान अधिनियम, 1952, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 आदि। लेकिन श्रम विषय को संविधान के समवर्ती सूची में रखा गया है जिसपर कानून बनाने का अधिकार केंद्र और राज्य दोनों को है। राज्य अपना स्वयं का भी श्रम कानून बनाती है जैसे बिहार दूकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, 1953 या केंद्र द्वारा बनाये गए कानून में विहित प्रक्रिया से अपने अनुकूल संशोधन भी कर सकती है।

👉समुचित सरकार द्वारा प्रवर्तन- अधिकतर श्रम कानून मुख्य रूप से केद्र सरकार द्वारा ही बनाया गया है लेकिन उसके प्रवर्तन का जिम्मा समुचित सरकार का होता है। अर्थात जहाँ केंद्र सरकार का प्रतिष्ठान है वहाँ केंद्र सरकार और जहाँ राज्य सरकार का नियंत्रण है वहाँ राज्य सरकार इन श्रम कानूनों का प्रवर्तन करवाती है।

👉उद्योगों पर आधारित श्रम कानून- अपने देश में श्रम कानूनों की बहुलता है। उद्योगों की आवश्यकता के अनुरूप भी कई श्रम कानून बनाये गए है, जैसे कारखाना अधिनियम, 1948, बागान श्रमिक अधिनियम, 1952, मोटर-परिवहन कर्मकार अधिनियम, 1961, खान अधिनियम, 1952 आदि।

👉संरक्षणात्मक एवं कल्याणकारी श्रम कानून- कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को संपुष्ट करने तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के उद्येश्य से भारतीय श्रम कानूनों को ढाला गया है।

भारतीय श्रम विधान की मुख्य आलोचना


भारत ने अपना पहला श्रम कानून 1843 में दास प्रथा को समाप्त करने के उद्येश्य से बनाया था। जिसके बाद श्रमिकों के बेहतरी के लिए सरकार द्वारा कई श्रम कानूनों को बनाया है। लेकिन कई विशेषज्ञों ने भारतीय श्रम कानूनों की कुछ आलोचना भी की है-

👉अव्यवस्थित श्रम कानून- देश में अधिकांशतः छोटे-छोटे श्रम कानून है जो समय-समय पर तात्कालिक आवश्यकताओं को देखकर बनाये गए है, जिसके कारण न केवल श्रम कानूनों की बहुलता हो गयी है बल्कि कई बातों की पुनरावृत्ति भी हो गयी है। कई विकसित देशों में विस्तृत श्रम कानून देखने को मिलता है जो सभी श्रम समस्याओं के समाधान का प्रयास करते है, जैसे- अमेरिका का Old-age, Survivors, Disability and Health insurance (OASDHI) प्रोग्राम। हालाँकि हाल ही में भारत सरकार ने इस समस्या को देखते हुए नए श्रम संहिताओं को पारित किया है।

👉नियोजकों द्वारा सही से अनुपालन नहीं- भारत में नियोजक श्रम कानूनों का पालन सही तरीके से नहीं करते है। यदि करते भी है तो केवल शाब्दिक रूप से वास्तविक रूप से नहीं। इसका कारण श्रम कानूनों की अधिकता, श्रमिकों के प्रति नियोजकों का नजरिया, कमज़ोर दंड प्रावधान आदि माने जा सकते है।

👉श्रम कानूनों के प्रवर्तन में समस्या- श्रम कानूनों के प्रवर्तन के लिए सभी अधिनियमों में निरीक्षकों की नियुक्ति की गयी है। लेकिन विभिन्न अधिनियमों के अंतर्गत नियुक्त निरीक्षकों की संख्या काफी कम है।

👉भ्रष्टाचार - श्रम कानूनों का अनुपालन सही तरीके से नहीं होने में भ्रष्टाचार भी एक प्रमुख कारण है।

👉राजनीतिक प्रभाव- देश में राजनीतिक दल चुनावों में बड़े-बड़े नियोजकों से चंदा प्राप्त करते है। ऐसे में स्वायत्त मशीनरी नहीं होने के कारण श्रम कानूनों को लागू कराने वाली व्यवस्था राजनीतिक दल से प्रभावित होने की आशंका रहती है।

👉कमजोर दंड प्रावधान- भारतीय श्रम विधान में काफी कमजोर दंड का प्रावधान किया गया है। जिसके कारण नियोजकों में इसका भय व्याप्त नहीं हो पाता है और वे इसके अनुपालन के लिए बाध्य नहीं होते है।

👉कुछ प्रमुख विषयों पर श्रम अधिनियम का अभाव- कई महत्वपूर्ण विषय जैसे सामूहिक सौदेबाजी, प्रबंधन में श्रमिकों की सहभागिता, आदि पर श्रम कानूनों का अभाव दिखता है।


श्रम विधान का इतिहास

भारतीय श्रम विधान के इतिहास को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- पहले भाग में वैसे श्रम कानूनों को रखा जा सकता है जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के पूर्व मुख्यतः दमनकारी प्रकृति के थे, दूसरे भाग के श्रम कानूनों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का प्रभाव पड़ा और वे मुख्यतः विनियामक प्रकृति के रहे एवं तीसरे भाग में वैसे श्रम कानूनों को रखा जा सकता है जिनपर संविधान का प्रभाव पड़ा और वे मुख्यतः कल्याणकारी प्रकृति के बने। अतः श्रम विधान के इतिहास को हम इस रूप में वर्गीकृत कर सकते है- (i) 1919 के पूर्व अर्थात अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के गठन के पूर्व; (ii) 1919 से स्वतंत्रता तक अर्थात अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के गठन के बाद से संविधान लागू होने के पूर्व तक और (iii) स्वतंत्रता के बाद।

👉अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन से पूर्व की स्थिति- श्रम कानूनों पर ब्रिटिश नियोजकों का प्रभाव था तथा ये कानून ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से प्रभावित थे। उस समय के श्रम कानून मुख्यतः शोषणकारी प्रकृति के थे जिसमें श्रमिकों के अधिकार सीमित हुआ करते थे। श्रम कानूनों में श्रमिकों के हितो की अनदेखी होती थी तथा नियोजकों के अनुकूल इसे बनाया जाता था। इस समय के प्रमुख श्रम कानून है- (i) बंगाल विनियमन, 1819- करारबद्ध (संविदा) श्रमिकों द्वारा काम नहीं करना दंडनीय अपराध घोषित किया गया; (ii) भारतीय दास अधिनियम, 1843- दास प्रथा को अवैध घोषित किया गया (iii) प्रशिक्षु अधिनियम, 1850- 10-18 वर्ष के दोषियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाएगा; (iv) भारतीय घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855;- घातक दुर्घटना से प्रभावित व्यक्ति को मुआवजे का प्रावधान किया गया; (v) कर्मकार संविदा का उल्लंघन अधिनियम, 1859- शिल्पियों, कर्मकारों तथा श्रमिकों को नियोजकों के साथ की गयी संविदा के उल्लंघन पर दंड का प्रावधान; (vi) भारतीय दास संहिता, 1860- इसके अंतर्गत दास रखने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगाया गया; (vii) नियोजक एवं श्रमिक (विवाद) अधिनियम, 1860- संविदा उल्लंघन को दंडनीय बनाते हुए दंडाधिकारियों को विवादों के संक्षिप्त निपटान का अधिकार दिया गया; (viii) कारखाना अधिनियम, 1881/1891/1911- कारखाना अधिनियम, 1881 ऐसे कारखानों में लागू था जहाँ 100 से अधिक श्रमिक कार्यरत थे एवं इसके द्वारा 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम लेना प्रतिबंधित किया गया। इसे 1891 तथा 1911 में संशोधित कर कार्य के घंटे, सुरक्षा, खतरनाक कामों में बालकों और स्त्रियों के नियोजन पर प्रतिबन्ध जैसे प्रावधान बनाये गए; (ix) असम श्रमिक एवं उत्प्रवासी अधिनियम, 1901;- चाय बगान श्रमिकों विनियमित करने के लिए इस अधिनियम को लाया गया; (x) खान अधिनियम, 1901;- खान श्रमिकों के लिए पहला श्रम कानून खान समिति की अनुशंसा पर बनाया गया जिसमें खानों में स्त्रियों और 12 वर्ष से कम उम्र के बालकों के नियोजन पर प्रतिबन्ध लगाया गया।

👉1919 से स्वतंत्रता तक की स्थिति- श्रम कानूनों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठनों का प्रभाव पड़ा। इस समय के श्रम कानून मुख्यतः विनियमनकारी प्रकृति के थे जो कल्याणकारी प्रकृति की तरफ अग्रसर हो रहे थे। इस समय के श्रम कानूनों की कुछ प्रमुख विशेषता निम्न प्रकार से थी-
  • श्रम कानूनों पर भारत सरकार अधिनियम, 1919 तथा भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अलावे श्रम से जुड़े आयोगों तथा समितियों के सुझावों का असर हुआ।
  • भारत सरकार अधिनियम, 1919 में केंद्रीय सरकार को श्रम से जुड़े प्रायः सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था तथा प्रांतीय सरकारें केवल सुरक्षित विषयों पर केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में श्रम कानून बना सकती थी।
  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 में श्रम संबंधी विषयों को तीन श्रेणियों में रखा गया- संघीय सूची, समवर्ती सूची तथा प्रांतीय सूची। विमान एवं पत्तन, संचार तथा केंद्र से जुड़े अन्य प्रतिष्ठानों के लिए श्रम कानून संघीय सूची में रखे गए। कारखाना श्रमिक, सामाजिक बीमा, औद्योगिक विवाद आदि को समवर्ती सूची में रखा गया। बगान, छोटे पत्तन तथा खान आदि अन्य प्रांतीय विषयों पर कानून प्रांतीय सूची में रखा गया।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व श्रम संबंधी विषयों को लेकर कई महत्वपूर्णआयोग एवं समितियाँ बनी। जैसे- शाही श्रम आयोग (1929), बिहार श्रमिक जाँच समिति (1938), श्रमिक जाँच समिति (1944), अदारकर समिति (1943), रेगे समिति (1944), भोरे समिति (1946) आदि।
  • शाही श्रम आयोग (1929) के सिफारिश पर कारखाना अधिनियम 1934, मजदूरी भुगतान अधिनियम 1936, बालक नियोजन अधिनियम 1938, नियोजक दायित्व अधिनियम 1938, व्यवसाय विवाद (संशोधन) अधिनियम 1934 आदि पारित किया गया।
  • रेगे समिति (1944) की अनुशंसा पर अभ्रक खान श्रम-कल्याण निधि अधिनियम 1946, कोयला खान श्रम-कल्याण निधि अधिनियम 1946, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, खान अधिनियम 1952 आदि बनाया गया।
  • अदारकर और भोरे समिति के सुझावों के आधार पर कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 बनाया गया।
  • इस समय के मुख्य श्रम कानून रहे- (i) कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923- दुर्घटना की स्थिति में मृत्यु या अपंगता होने पर श्रमिकों को मुआवजा देने का प्रावधान किया गया; (ii) भारतीय खान अधिनियम 1923- 13 वर्ष से कम उम्र के बालकों को खान में कार्य करने से प्रतिबंधित किया गया। खान श्रमिकों के सुरक्षा तथा कार्य की दशाओं को बेहतर करने के दृष्टिकोण से बनाया गया; (iii) भविष्य निधि अधिनियम, 1925- केवल सरकार, रेलवे प्रसाशन और स्थानीय प्राधिकारों में कार्यरत कर्मचारियों के भविष्य निधि को नियंत्रित करने के उद्येश्य से बनाया गया; (iv) श्रम संघ अधिनियम, 1926- श्रम संघों के निबंधन की प्रक्रिया तथा कर्तव्य एवं अधिकार को स्पष्ट करने के लिए बनाया गया; (v) श्रम (विवाद) अधिनियम, 1929- श्रमिकों एवं नियोजकों के बीच हुए विवाद को सुलझाने के लिए अधिनियम लाया गया; (vi) चाय जिला उत्प्रवासी श्रम अधिनियम 1932- संविदा भंग के लिए दंड प्रावधान को समाप्त कर दिया गया; (vii) बालक श्रम (गिरवीकरण) अधिनियम 1933- बंधुआ बाल श्रमिक की समस्या पर नियंत्रण के लिए बनाया गया; (viii) कारखाना अधिनियम , 1934- कारखाना के तहत 20 या अधिक कामगार वाले प्रतिष्ठानों को शामिल करने के साथ अतिकाल मजदूरी दर मजदूरी के 1.25 गुणा नियत करने जैसे संशोधन किए गए; (ix) मजदूरी भुगतान अधिनियम 1936- श्रमिकों को नियत समय से मजदूरी का भुगतान तथा मजदूरी से अनावश्यक कटौती रोकने के उद्येश्य से यह अधिनियम लाया गया; (x) स्थायी आदेश विधान,1946- 100 या अधिक कामगारों को नियोजित करने वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों के स्वामियों के लिए सेवा और नियोजन से की शर्तों के लिए स्थायी आदेश बनाने तथा उसे प्रमाणकर्ता अधिकारी से प्रमाणित करने के लिए नियम बनाया गया।
👉स्वतंत्रता के बाद की स्थिति- श्रमिक जाँच समिति के सिफारिशों को ध्यान में रखकर अधिकतर श्रम कानून स्वतंत्रता बाद ही बने। श्रम संबधी नीतियों को संविधान में शामिल किया गया तथा उसके अनुरूप श्रम विधान बनाये गए। श्रम सम्मलेन, स्थायी श्रम समिति, राज्यों के श्रम सलाहकार बोर्ड तथा श्रम मंत्रियों के सम्मेलनों के निर्णय ने श्रम कानूनों को प्रभावित किया। स्वतंत्रता पश्चात देश में होनेवाले सामाजिक,आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तन, श्रमसंघों का बढ़ता प्रभाव, आर्थिक विकास के लिए बनाए गए योजनाओं की आवश्यकता आदि के कारण नए श्रम कानून बने तथा पुराने श्रम कानूनों में परिवर्तन किए गए। इस समय के श्रम कानूनों की कुछ प्रमुख विशेषता निम्न प्रकार से थी-
  • भारतीय संविधान में श्रम नीति से संबंध कई महत्वपूर्ण उपबंध है, जैसे- प्रस्तावना (समाजवाद, सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता, व्यक्ति की गरिमा, बंधुता आदि); मूल अधिकार (मुख्यतः अनुच्छेद 14, 15, 16, 17, 19, 21, 23 एवं 24), नीति-निर्देशक तत्व (मुख्यतः अनुच्छेद 38, 39, 39 (क), 41, 42, 43, 43 (क), 47), अनुसूची 7 (संघसूची, समवर्ती सूची तथा राज्य सूची) आदि।
  • श्रम विषयों के जाँच और सुधार के उद्येश्य से समय-समय पर विशेषज्ञों के स्तर से कई आयोग एवं समितियों का गठन किया गया। जिनमें से प्रमुख रहे- उचित मजदूरी समिति, 1948, बोनस आयोग, 1964, श्रम कल्याण समिति, 1968, राष्ट्रीय श्रम आयोग, 1969 एवं 2002, श्रम सम्मेलन, स्थायी श्रम समिति आदि।
  • पंचवर्षीय योजनाएँ- उत्पादकता में वृद्धि, बेरोजगारी और गरीबी का उन्मूलन, राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा उसका संवितरण, बचत एवं निवेश को बढ़ावा देने जैसे उद्येश्यों से चलाये जा रहे कार्यक्रमों और योजनाओं के अनुरूप श्रम विधान को बनाया गया।
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश- समय-समय पर माननीय न्यायालय द्वारा कई आदेश दिए गए जिसके आलोक में भी कई श्रम कानूनों में संशोधन भी किया गया है। जैसे- बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ श्रमिकों की परिभाषा को अधिक व्यापक बनाया है।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का प्रभाव- भारत अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा पारित अभिसमयों और सिफारिशों के अनुरूप अपने श्रम अधिनियमों को समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय मानक का बनाने में लगा रहा। जैसे अभिसमय संख्या 138 तथा 182 को अनुसमर्थित करते हुए हाल ही में भारत ने संशोधित बाल एवं किशोर श्रम (प्र० एवं वि०) अधनियम, 1986 लाया गया।
  • ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस- वैश्वीकरण के दौर में व्यापार सुगमता को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस के तहत व्यापक श्रम सुधार किए जा रहे है।
  • इस समय के मुख्य श्रम कानून है- (i) कारखाना अधिनियम, 1948- कारखानों में कार्यरत कामगारों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, कल्याण, कार्य के घंटे, बालकों और स्त्रियों के नियोजन आदि से संबंधित प्रावधानों को पूर्व के अधिनियम की तुलना में संशोधित कर अधिक व्यापक बनाया गया; (ii) खान अधिनियम, 1952- खानों में कार्यरत कामगारों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, कल्याण, कार्य के घंटे, बालकों नियोजन पर प्रतिबंध आदि से संबंधित प्रावधान के उद्येश्य से पूर्व के अधिनियम को संशोधित कर अधिक व्यापक बनाया गया; (iii) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948- असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के लिए मजदूरी की न्यूनतम दर का निर्धारण किया गया; (iv) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948- संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान किया गया; (v) कर्मचारी भविष्य निधि तथा प्रकीर्ण उपबंध अधि० 1952- संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा के लिए सेवानिवृति पश्चात पेंशन एवं एकमुश्त राशि भुगतान के लिए प्रावधान बनाए गए; (vi) मातृत्व हितलाभ अधिनियम, 1961- महिला कामगारों की मातृत्व सुरक्षा के लिए अधिनियम लाया गया; (vii) बीड़ी एवं सिगार कर्मकार (नियोजन की शर्ते) अधि०, 1966- बीड़ी श्रमिकों के मजदूरी, कार्य के घंटे और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर सुरक्षा देने के उद्येश्य से प्रावधान लाये गए; (viii) ठेका श्रम (विनियमन एवं उत्सादन) अधि० 1970 ठेका श्रम विनियमन के लिए कानून बनाया गया; (ix) उपादान संदाय अधिनियम, 1972- श्रमिकों द्वारा कम से कम 5 वर्षों की लगातार सेवा देने के पश्चात उपादान भुगतान का प्रावधान किया गया; (x) बंधुआ श्रम पद्धति (उत्सादन) अधि० 1976- बंधुआ श्रम प्रथा उन्मूलन के लिए प्रावधान किया गया; (xi) समान पारिश्रमिकी अधिनियम, 1976- लिंग आधारित परिश्रमिकी में भेदभाव को समाप्त करने के लिए प्रावधान लाया गया; (xii) अन्तर्राज्यीय प्रवासी कर्मकार (नियोजन एवं सेवा शर्त विनियमन) अधि०, 1979- दूसरे राज्य में जाकर कार्य करने वाले प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा के लिए प्रावधान बनाए गए; (xiii) बाल एवं किशोर श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधि० 1986- बाल श्रम के सभी रूपों को समाप्त करने के साथ ही किशोरों को खतरनाक कार्यों से सुरक्षित करने संबंधी प्रावधान किया गया; (xiv) भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार (नियोजन एवं सेवा शर्त विनियमन), 1996- निर्माण कार्य में संलग्न श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य, सुरक्षा, कल्याण तथा मजदूरी से संबंधित प्रावधान दिया गया है; (xv) असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा अधि०, 2008- असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ने के प्रावधान बनाए गए है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न-

श्रम विधान या श्रम कानून से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- श्रम विधान सामाजिक विधान का ही एक प्रकार है जिसका उद्येश्य श्रमिकों के श्रम की दशाओं तथा श्रम कल्याण से जुड़ा होता है। श्रम कानून का उद्येश्य श्रम समस्याओं को नियंत्रित करना तथा श्रमिकों के शोषण को रोकना है। श्रम कानून श्रमिकों /श्रम-संघों, नियोजकों/ नियोजक संगठनो तथा सरकार के बीच त्रिपक्षीय संबंध को परिभाषित करता है।

श्रम कानून के उद्देश्य क्या हैं?
उत्तर- श्रम कानून के निम्नलिखित उद्देश्य है;-
(1) श्रमिकों के लिए न्याय की स्थापना- सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय दिलाना।
(2) जाति, पंथ, धर्म या विश्वास के बावजूद सभी श्रमिकों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसरों को प्रदान करना।
(3) समुदाय में कमजोर वर्गों का संरक्षण।
(4) औद्योगिक शांति को बनाये रखना।
(5) आर्थिक विकास के लिए परिस्थितियों का निर्माण।
(6) श्रम मानकों का संरक्षण और सुधार।
(7) श्रमिकों को शोषण से बचाना।
(8) कामगारों को संघों को संयोजित करने और बनाने के अधिकार की सुरक्षा देना।
(9) उनकी बेहतरी के लिए सामूहिक सौदेबाजी द्वारा कामगारों के अधिकार को सुनिश्चित करना।
(10) राज्य को एक दर्शक बने रहने के बजाय सामाजिक भलाई के रक्षक के रूप में हस्तक्षेप करवाना।
(11) मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करना।

श्रम विधान कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर- श्रम कानूनों को उनके उद्येश्यों के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(1) नियामक
(2) सुरक्षात्मक
(3) वेतन संबंधी
(4) सामाजिक सुरक्षा संबंधी
(5) कल्याण संबंधी

श्रम कानून के चार सिद्धांत क्या हैं?
उत्तर- आर के दास के अनुसार श्रम विधान के चार सिद्धांत है- सामाजिक न्याय का सिद्धांत, समाज कल्याण का सिद्धांत, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का सिद्धांत और अंतर्राष्ट्रीय एकात्मता का सिद्धांत

भारत में कितने श्रम कानून हैं?
उत्तरश्रम के विभिन्न पहलुओं जैसे, औद्योगिक विवादों का समाधान, काम करने की स्थिति, सामाजिक सुरक्षा और मजदूरी आदि को विनियमित करने वाले लगभग 100 से अधिक राज्य कानून और 40 केंद्रीय कानून हैं



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